।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
 आश्विन शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०७४, मंगलवार
                  संन्यासी साधकों और
         कीर्तनकारोंसे नम्र निवेदन



             (गत ब्लॉगसे आगेका)

        जो लोग वास्तविक ब्राह्मी स्थितितक पहुँचनेसे पहले ही केवल पुस्तकीय ज्ञानके आधारपर अपनेको ज्ञानी मान बैठते हैं और विधि-निषेधसे मुक्त समझकर साधन छोड़ बैठते हैं, वे प्रायः गिर ही जाते हैं । क्योंकि जबतक अज्ञान है तबतक इन्द्रियोंके भोगोंमें आसक्ति है ही, और पाप होनेमें प्रधान कारण भोगोंकी आसक्ति ही है । फिर, जहाँ काम-क्रोधादि ही अन्तःकरणके अनिवार्य धर्म मान लिये जायँ, वहाँ तो कहना ही क्या ? अतएव मुझ-जैसे साधकोंको तो बड़ी ही सावधानी के साथ दुर्गुणोंसे बचते रहनेका पूरा ध्यान रहना चाहिये । अपनेको राग-द्वेष, काम-क्रोध-लोभादि दोषोंसे हरदम बचाते रहना चाहिये । संन्यासाश्रममें तो साधकको कभी भूलकर भी स्त्री और धनके साथ किसी प्रकारका भी सम्बन्ध न जोड़ना चाहिये । इनका संग ही न करना चाहिये । जो सिद्ध महापुरुष हैं, उनमें तो कोई ऐसा दोष रह ही नहीं सकता ।

यह स्मरण रखना चाहिये कि ढोंगी ज्ञानीकी अपेक्षा अज्ञानी रहना अच्छा है; उसको पापोंसे डर तो रहता है । ढोंगी तो जान-बूझकर ढोंगकी रक्षाके लिये भी पाप करता है । अतएव ढोंगको कभी कल्पनामें भी न आने देना चाहिये; सच्चा संन्यासी बनना चाहिये । और ‒

यावदायुस्त्वया वन्द्यो वेदान्तो गुरुरीश्वरः ।
मनसा कर्मणा वाचा   श्रुतेरेवैष   निश्चयः ॥
                                            (तत्त्वोपदेश ८६)

‒आचार्यचरणोंकी इस उक्तिके अनुसार शास्त्रकी विधिको सर्वदा मानते रहना चाहिये । संन्यासीके पालन करनेयोय कुछ धर्म ये हैं‒ गृहस्थोंका संग न करे । स्त्रीकी तो तस्वीर भी न देखे । धनका स्पर्श न करे । किसीके साथ कोई नाता न जोड़े । किसी भी विषयमें ममत्व न करे । मान-बड़ाई स्वीकार न करे । वैराग्यकी बड़ी सावधानीसे रक्षा करे । इन्द्रियोंको संयममें रखे ।वस्तुओंका संग्रह न करे । जमात न बनावे । घर न बाँधे । व्यर्थ न बोले । ब्रह्मचर्य धारण करे । काम-क्रोध-लोभादिसे सदा मुक्त रहे । किसीसे द्वेष न करे । किसीमें राग न करे । नित्य आत्मचिन्तन या भगवत्स्मरणमें ही लगा रहे ।

जो संन्यासी अपने इस संन्यास-धर्मका पालन नहीं करता वह प्रायः गिर जाता है । अतएव अपने आश्रम-धर्मका पूरा पालन करना चाहिये । विधि-निषेधसे परे पहुँचे हुए महापुरुषोंके द्वारा भी लोकसंग्रहार्थ आदर्श शुभ कर्म ही हुआ करते हैं ।

अगर भक्त बननेकी चाह हो तो भगवान्‌के शरण होकर भगवान्‌का सतत भजन करते रहना चाहिये । लोग भक्त समझें या कहें, इस बातकी परवा छोड़ ही देनी चाहिये । भगवान्‌का नाम और गुणकीर्तन प्रेमसे करते रहना चाहिये । जहाँतक बने, अपनी भक्तिको प्रकट नहीं होने देना चाहिये । लोग हमारी पूजा करें, हमारा सम्मान करें, ऐसा अवसर ही नहीं आने देना चाहिये । मान-बड़ाईसे सदा सावधानीसे बचते रहना चाहिये । स्त्रीका और स्त्रीसंगियोंका संग तो कभी नहीं करना चाहिये । धनका लोभ मनमें न आने देना चाहिये । प्रतिष्ठाको तो शूकरीविष्ठा ही समझना चाहिये ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तकसे