(गत
ब्लॉगसे आगेका)
जो लोग
वास्तविक ब्राह्मी स्थितितक पहुँचनेसे पहले ही केवल पुस्तकीय ज्ञानके आधारपर
अपनेको ज्ञानी मान बैठते हैं और विधि-निषेधसे मुक्त समझकर साधन छोड़ बैठते हैं, वे
प्रायः गिर ही जाते हैं । क्योंकि जबतक अज्ञान है तबतक
इन्द्रियोंके भोगोंमें आसक्ति है ही, और पाप होनेमें प्रधान कारण भोगोंकी आसक्ति
ही है । फिर, जहाँ काम-क्रोधादि ही अन्तःकरणके अनिवार्य धर्म मान लिये जायँ,
वहाँ तो कहना ही क्या ? अतएव मुझ-जैसे साधकोंको तो बड़ी ही सावधानी के साथ
दुर्गुणोंसे बचते रहनेका पूरा ध्यान रहना चाहिये । अपनेको राग-द्वेष, काम-क्रोध-लोभादि
दोषोंसे हरदम बचाते रहना चाहिये । संन्यासाश्रममें तो
साधकको कभी भूलकर भी स्त्री और धनके साथ किसी प्रकारका भी सम्बन्ध न जोड़ना चाहिये
। इनका संग ही न करना चाहिये । जो सिद्ध महापुरुष हैं, उनमें तो कोई ऐसा
दोष रह ही नहीं सकता ।
यह स्मरण रखना
चाहिये कि ढोंगी ज्ञानीकी अपेक्षा अज्ञानी रहना अच्छा है; उसको पापोंसे डर तो रहता
है । ढोंगी तो जान-बूझकर ढोंगकी रक्षाके लिये भी पाप करता है । अतएव ढोंगको कभी कल्पनामें भी न आने देना चाहिये; सच्चा संन्यासी
बनना चाहिये । और ‒
यावदायुस्त्वया वन्द्यो वेदान्तो गुरुरीश्वरः ।
मनसा कर्मणा वाचा श्रुतेरेवैष निश्चयः ॥
(तत्त्वोपदेश
८६)
‒आचार्यचरणोंकी इस उक्तिके अनुसार शास्त्रकी विधिको सर्वदा
मानते रहना चाहिये । संन्यासीके पालन करनेयोय कुछ धर्म ये हैं‒ गृहस्थोंका संग न
करे । स्त्रीकी तो तस्वीर भी न देखे । धनका स्पर्श न करे । किसीके साथ कोई नाता न
जोड़े । किसी भी विषयमें ममत्व न करे । मान-बड़ाई स्वीकार न करे । वैराग्यकी बड़ी
सावधानीसे रक्षा करे । इन्द्रियोंको संयममें
रखे ।वस्तुओंका संग्रह न करे । जमात न बनावे । घर न बाँधे । व्यर्थ न बोले
। ब्रह्मचर्य धारण करे । काम-क्रोध-लोभादिसे सदा मुक्त रहे । किसीसे द्वेष न करे ।
किसीमें राग न करे । नित्य आत्मचिन्तन या भगवत्स्मरणमें ही लगा रहे ।
जो संन्यासी अपने इस संन्यास-धर्मका पालन नहीं
करता वह प्रायः गिर जाता है । अतएव अपने आश्रम-धर्मका पूरा पालन करना चाहिये । विधि-निषेधसे परे पहुँचे हुए महापुरुषोंके द्वारा भी
लोकसंग्रहार्थ आदर्श शुभ कर्म ही हुआ करते हैं ।
अगर भक्त बननेकी चाह हो तो भगवान्के शरण होकर
भगवान्का सतत भजन करते रहना चाहिये । लोग भक्त समझें या कहें, इस बातकी परवा छोड़ ही देनी चाहिये । भगवान्का नाम
और गुणकीर्तन प्रेमसे करते रहना चाहिये । जहाँतक बने, अपनी भक्तिको प्रकट नहीं
होने देना चाहिये । लोग हमारी पूजा करें, हमारा सम्मान
करें, ऐसा अवसर ही नहीं आने देना चाहिये । मान-बड़ाईसे सदा सावधानीसे बचते रहना
चाहिये । स्त्रीका और स्त्रीसंगियोंका संग तो कभी नहीं करना चाहिये । धनका
लोभ मनमें न आने देना चाहिये । प्रतिष्ठाको तो शूकरीविष्ठा ही समझना चाहिये ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तकसे
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