(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒आपने कहा कि ‘चुप’ होनेके बाद प्रेम होता है, इसे थोड़ा विस्तारसे समझाएँ ।
स्वामीजी‒मैं भगवान्के चरणोंकी शरण हूँ‒यह भाव तो आरम्भमें
ही हो जाता है । परन्तु जब अचिन्त्यभाव होकर अपने-आपको भगवान्के
चरणोंके अर्पित कर देता है, तक मेरी जगह भगवान्के चरण ही रह
जाते हैं, ‘मैं’ रहता ही नहीं । ‘मैं’ चरणोंमें लीन हो गया ।
जब ‘मैं’ ही नहीं रहा तो मेरा कर्तव्य क्या
हुआ ? कर्तव्य कुछ नहीं रहा । ‘मैं’
की जगह भगवान् आ गये । पीछे एक भगवान् ही रह गये । मैंपनका अभाव हो गया
। निर्मम-निरहंकार हो गया‒‘निर्ममो निरहङ्कारः’ (गीता २ । ७१; १२ । १३) ।
पहले ‘वासुदेवः सर्वम्’
होता है । फिर मैंपन मिटनेपर ‘सर्वम्’ मिट जाता है, केवल ‘वासुदेव’
रह जाता है । ‘सर्वम्’ (सम्पूर्ण संसार) अहम्के आश्रित
है । अहम्, व्यक्तित्व सर्वथा मिटनेपर प्रेम प्रकट हो जाता है । उसमें प्रीति और प्रियतम
एक हो जाते हैं । प्रीति राधा है और प्रियतम भगवान् कृष्ण हैं । ये कहनेमें दो हैं,
पर वास्तवमें दो हैं नहीं ।
लोगोंने समझा है कि हम संसारके आदमी हैं और भगवान्की
प्राप्ति बड़ी दुर्लभ, कठिन है । यह बात नहीं है । भगवान्की प्राप्ति तो अपने घरकी बात
है । हम भगवान्के अंश हैं‒‘ईश्वर अंस जीव
अबिनासी’ (मानस, उत्तर॰ ११७ । १) । भगवान् हमारे पिता हैं । पिताकी गोदमें
जानेमें क्या जोर आये ? सब-के-सब भाई-बहन भगवान्को अपना पिता कह सकते हैं । मना करनेवाला कौन है ? लोग कहते हैं कि मुक्ति बड़ी कठिन है ! भगवान्का प्रेम
बड़ा कठिन है ! भगवान् हमारे पिता हैं, फिर
कठिनता किस बातकी ? हम मौजसे अपने पिताकी गोदमें बैठे हैं !
कौन मना कर सकता है ?
हम सब-के-सब परमपिता भगवान्की
गोदमें बैठे हैं । भगवान्की गोद इतनी बड़ी है कि सब-के-सब बैठ जायँ, फिर भी गोद खाली है ! भगवान्का पुष्पक-विमान भी ऐसा था कि उसमें चाहे जितने आ जायँ, सब बैठ जायँ !!
अतिसय प्रीति देखि रघुराई
।
लीन्हे सकल बिमान चढ़ाई ॥
(मानस,
लका॰ ११९ । १)
आप यह स्वीकार कर लें कि सब कुछ भगवान् ही हैं‒‘वासुदेवः
सर्वम्’ (गीता ७ । १९) । इस बातमें इतना लाभ है कि ऐसा लाभ कोई हुआ नहीं,
होगा नहीं, हो सकता नहीं ! ऐसे लाभकी बातको आप क्यों छोड़ते हो ? यह परम लाभकी बात
है । अनेक रूपोंमें मेरे भगवान् हैं.....मेरे भगवान् हैं.....मेरे भगवान् हैं‒ऐसा मानकर सब-के-सब भाई-बहन मस्त हो जाओ, नाचने
लग जाओ ! कितने आनन्दकी बात है ! कितनी
बढ़िया बात है ! कितनी श्रेष्ठ बात है ! एक प्यारा मित्र कई वर्षोंके बाद मिलता है तो बड़ा आनन्द आता है, फिर सब जगह साक्षात् भगवान् मिल जायँ तो कितने आनन्दकी बात है ! रात-दिन इसमें मस्त हो जाओ । दुःख सब मिट जायगा । कोई
दुःख पास आयेगा ही नहीं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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