सन्त-महात्माओंको किसीपर क्रोध भी आ जाय तो भी उनके द्वारा केवल
हित ही होता है । दीखनेमें क्रिया अलग-अलग दीखती है,
पर भीतरका भाव एक ही होता है । जैसे,
माँ बालकको प्यार भी करती है और कभी-कभी थप्पड भी लगा देती है
। बाहरसे क्रिया तो दो दीखती है, पर माँका हृदय दो नहीं होता,
एक ही रहता है । माँकी जो हितैषिता प्यारमें है,
उससे कम हितैषिता मारमें नहीं है । उल्टे मारमें ज्यादा हितैषिता,
ज्यादा अपनापन होता है । इसी तरह सन्त-महात्माओंमें
जो कड़ापन होता है, उसमें ज्यादा हित भरा होता है । यद्यपि स्वभावमें
न होनेके कारण उनको कड़ाई करनेपर, शासन करनेपर जोर आता है, तथापि
दूसरेके हितके लिये उनको कड़ाई करनी पड़ती है । कड़ाई करके वे प्रसन्न, राजी
नहीं होते । नारियलके समान
बाहरसे कठोर दीखनेपर भी उनके भीतर रस भरा रहता है !
गीर्भिर्गुरूणां परुषाक्षराभिस्तिरस्कृता यान्ति नरा महत्त्वम्
।
अलब्धशाणोत्कषणान्नृपाणां न जातु मौलौ मणयो वसन्ति ॥
(रसगंगाधर)
‘जब मनुष्य गुरुजनोंकी कठोर शब्दोंसे युक्त वाणीद्वारा अपमानित किये जाते हैं, तभी वे महत्त्वको प्राप्त होते हैं,
अन्यथा नहीं । जैसे, मणि भी जबतक शाणपर घिसकर उज्जवल नहीं की जाती, तबतक वह राजाओंके मुकुटमें नहीं जड़ी जाती ।’
भगवान् और उनके भक्तोंके द्वारा मात्र संसारका हित-ही-हित होता
है । उनके द्वारा हितकी वर्षा होती है ! इस बातको अगर मनुष्य जान जाय तो वह उनका भक्त
हो जाय, उनके चरणोंमें लोटने लगे ।
उमा राम सुभाउ जेहि
जाना ।
ताहि भजनु तजि भाव न आना ॥
(मानस, सुन्दर॰ ३४ । २)
जैसे अपनी शक्तिसे हम भगवान्को जान नहीं सकते, ऐसे
ही सन्तोंको भी जान नहीं सकते । उनके पासमें रहते हुए भी नहीं जान सकते ! उनको जाननेमें
अपनी बुद्धिमानी काम नहीं करती, प्रत्युत उनकी कृपा काम करती है‒‘सोइ
जानइ जेहि देहु जनाई’ (मानस,
अयोध्या॰ १२७ । २) । भगवान् और उनके भक्तोंके चरित्रको उनकी कृपाके बिना समझ नहीं
सकते । इसलिये भगवान्को और उनके भक्तोंको पहचाननेवाले कम होते हैं । उनको पहचाननेमें
भगवत्कृपाके पात्र भक्त ही चतुर होते हैं । जैसे कपूरकी सुगन्ध जानकार अथवा अनजान‒दोनोंको
आती है । जानकार जान लेता है कि यह कपूरकी सुगन्ध है,
अनजान नहीं जानता । जैसे पीनसके रोगीको सुगन्ध मालूम नहीं होती,
फिर भी वह उसके रोगका नाश करती है । ऐसे ही सन्तोंको जानें अथवा
न जानें, उनके द्वारा दुनियामात्रका भला होता है ।
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