सृष्टि-रचनाके समय जब ब्रह्माजीने मनुष्य और गायकी रचना की,
तब भगवान् बहुत प्रसन्न हुए । तात्पर्य है कि मनुष्य और गाय‒ये
दोनों सबका हित करनेके लिये हैं । मनुष्य,
देवता, पितर, पशु पक्षी, भूत-प्रेत आदि सबकी रक्षा और पालन करनेके लिये मनुष्य बनाया
गया है । मनुष्य दूसरोंका जितना हित कर सकता है,
उतना दूसरे नहीं कर सकते । भगवान्को याद रखना और सबका हित करना‒ये
दो बातें होनेसे ही मनुष्यकी मनुष्यता है,
नहीं तो वह मनुष्यरूपसे पशु है । इसलिये आप सबसे प्रार्थना है
कि सबका हित करो । व्यवहारमें बालकों आदिपर शासन भी करना पड़ता है,
पर हृदयमें हितका भाव रहना चाहिये । जिसके भीतर स्वार्थका भाव है, वह
दूसरेका हित, सेवा नहीं कर सकता‒यह अकाट्य सिद्धान्त है । वह हितका स्वाँग (नाटक) कर सकता है,
हितकी बातें कह सकता है,
पर हित नहीं कर सकता । जिसे भेंट-पूजा लेनी है,
अपना मकान (आश्रम) बनाना है,
पैसा इकट्ठा करना है,
अपनी प्रसिद्धि करनी है,
वह हित नहीं कर सकता । हित वही कर सकता है,
जिसके भीतर किसी तरहका स्वार्थ नहीं है । सबके हितका भाव रखनेवाले
परमात्माको प्राप्त होते हैं‒‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते
रताः’ (गीता १२ । ४) ।
परहित बस जिन्ह के मन माहीं ।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥
(मानस, अरण्य॰ ३१ । ५)
‘जिनके मनमें दूसरेका हित बसता है,
उनके लिये जगत्में कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।’
आप सब सेवक हो । इसलिये आप संसारमें जो भी काम करो,
वह सब सेवा-भावसे करो । यह कर्मयोगकी नयी बात है,
जो बहुत वर्षोके बाद मिली है ! पुस्तकोंमें हरेक जगह इतना खुलासा
आता नहीं । सब-का-सब जड़-विभाग केवल सेवाके लिये है, अपने
सुखभोगके लिये है ही नहीं‒‘एहि तन कर फल बिषय न भाई’ (मानस, उत्तर॰ ४४ । १) ।
संसारमें जितने भी जीव हैं,
उन सबमें एक मनुष्य ही सेवा करनेवाला है । वृक्ष आदिसे आप सेवा
ले सकते हो, पर वे सेवा कर नहीं सकते ।
मेरी आपसे हाथ जोड़कर एक प्रार्थना है कि आप दूसरे धर्मके चेले
मत बनो, हिन्दू बने रहो । कृपा करो कृपानाथ ! अपने धर्मका नाश मत करो
। हम आपलोगोंसे रुपया माँगते नहीं, कपड़ा माँगते नहीं, रोटी भी कोई अपने-आप दे दे तो ले लेते हैं,
पर हम माँगते नहीं ! आपसे कुछ माँगते नहीं,
पर एक चीज माँगते हैं कि चोटी रखो । आप इतने लोग बैठे हो,
कोई बताओ कि स्वामीजीने मेरेसे यह चीज माँगी ! साठ-सत्तर वर्षोंमें कोई चीज कभी भी माँगी हो तो कोई भाई-बहन बताओ
! सभामें खुला कहता हूँ ! वस्तुके बिना मैंने दुःख पाया है, कष्ट
पाया है, पर माँगा नहीं ! अब एक बात माँगता हूँ कि चोटी रखो
। जो चोटी (शिखा) नहीं रखते, वे हिन्दू नहीं हैं । हिन्दू वे हैं, जो चोटी रखते हैं । हिन्दूधर्ममें कल्याणकी जो बात है,
ऐसी बात किसी देशमें,
किसी वेशमें, किसी भाषामें मैंने नहीं सुनी है । चोटी रखनेसे कोई विपत्ति
आयी हो तो बताओ ! किसी आचार्यने, सन्त-महात्माने चोटी रखनेसे मना किया हो तो बताओ ! चोटी रखनेसे
आपको क्या नुकसान है ? चोटी रखनेसे आपका कोई नुकसान हुआ हो तो बताओ ! चोटी न रखनेसे आपके पितरोंको पिण्ड-पानी नहीं मिलेगा ।
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