सावधानी
ही साधना है । अतः साधक हर
समय सावधान रहता है कि कहीं कोई साधन-विरुद्ध क्रिया न हो जाय ! राग-द्वेष,
काम-क्रोधादिकी वृत्तियाँ आनेपर भी वह उनके
अनुसार क्रिया नहीं करता । अगर अपनी आदतसे अथवा भूलसे कोई साधन-विरुद्ध क्रिया हो
भी जाय, तो भी उसका उद्देश्य साधन-विरुद्ध क्रिया करनेका होता ही नहीं । जान-बूझकर वह कोई साधन-विरुद्ध क्रिया नहीं करता ।
जैसे, कोई
आदमी धन कमाता है और समय-समयपर उसको खर्च भी करता रहता है तो वह धनका असली लोभी
नहीं है । जो असली लोभी होगा, वह कठिनता भोग
लेगा, पर जानबूझकर पैसा खर्च नहीं करेगा । यहाँसे वहाँतक जानेमें चार पैसे
भी लगते हों तो वह पैदल चला जायगा, पर चार पैसे खर्च नहीं करेगा । इसी तरह साधकमें भी साधनका लोभ होना चाहिये । उसको आँखमें तिनकेकी तरह
साधनकी थोड़ी-सी भी हानि सहन नहीं होनी चाहिये । जो साधक साधनका लोभी होता है, उससे
अगर कोई साधन-विरुद्ध क्रिया हो जाय तो उसको दुःख होता है, पश्चाताप होता है । ऐसा
होनेसे साधन-विरुद्ध क्रिया होनी बन्द हो जाती है ।
परमात्मतत्त्वकी
प्राप्ति न स्त्रीको होती है, न पुरुषको होती है; न साधुको होती है, न गृहस्थको
होती है, न ब्राह्मणको होती है, न क्षत्रियको होती है अर्थात् भगवत्प्राप्ति किसी
जाति, वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिके व्यक्तिको नहीं होती, प्रत्युत साधकको होती है
। अतः जो साधक होता है, वह
स्त्री, पुरुष, साधु, गृहस्थ आदि नहीं होता
। तात्पर्य है कि साधकमें न तो जाति, वर्ण,
आश्रम, सम्प्रदाय आदिका अभिमान है, न इनका आग्रह होता है और न दूसरोंके प्रति नीचा
भाव होता है ।
प्रश्न–साधकका
लक्षण क्या है ?
उत्तर–साधकका लक्षण है–संसारसे वैराग्य और परमात्मासे
प्रेम ।
प्रश्न–सज्जन
और साधकमें क्या फर्क है ?
उत्तर–जिसके आचरण और विचार अच्छे हैं, जो सद्गुणी और सदाचारी है,
वह ‘सज्जन’ होता है और जिसमें भगवत्प्राप्तिकी, कल्याणकी उत्कण्ठा है, वह ‘साधक’
होता है । साधक
तो सज्जन होता ही है, पर सज्जन साधक होता हो–यह नियम नहीं है ।
जो दूसरोंके
मत, सम्प्रदायकी निन्दा करता है, उनका खण्डन करता है, विरोध करता है, वह सज्जन तो
हो सकता है, पर साधक नहीं हो सकता । साधक वही होता है, जो अपने मत, सम्प्रदायका अनुसरण तो करता
है, पर दूसरोंके मत, सम्प्रदायकी निन्दा, खण्डन, घृणा नहीं करता ।
प्रश्न–साधकका
व्यवहार कैसा होता है ?
उत्तर–वह अपने स्वार्थका त्याग करके दूसरोंका हित करता है; अपने
सुख-आरामका त्याग करके दूसरोंको सुख-आराम देता है; अपनी मान-बड़ाईका त्याग करके
दूसरोंको मान बड़ाई देता है–‘सबहि मानप्रद आपु अमानी’
(मानस ७/३८/२) । वह किसीके भी प्रति बुराभाव नहीं
रखता । अगर उसको किसीमें दोष दीखते हैं तो वह ऐसा मानता है कि ये दोष शरीरमें, अन्तःकरणमें,
स्वभावमें हैं, स्वयंमें नहीं हैं । जैसे किसीके कपड़ेमें दाग लग जाय तो वह
खुद दागवाला नहीं हो जाता, ऐसे ही अन्तःकरण आदिमें दोष होनेसे वह स्वयं दोषी नहीं
हो जाता । इस तरह साधक किसीको भी बुरा नहीं मानता और
दूसरोंको भी वह प्रायः बुरा नहीं लगता–‘यस्मान्नोद्विजते
लोको लोकान्नोद्विजते च यः’ (गीता १२/१५) ।
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