मनुष्य, देवता, पितर, यक्ष-राक्षस, भूत-प्रेत, पशु-पक्षी
आदि सम्पूर्ण प्राणियोंमें हमारे प्रभु ही हैं, इन
प्राणियोंके रूपमें हमारे प्रभु ही हैं‒ऐसा समझकर (भगवद्बुद्धिसे) निष्कामभावपूर्वक
सबकी सेवा की जाय तो परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है ।
उपर्युक्त दोनों बातोंका तात्पर्य यह हुआ कि अपनेमें सकामभावका
होना और जिसकी सेवा की जाय, उसमें भगवद्बुद्धि न होना ही जन्म-मरणका कारण है । अगर अपनेमें निष्कामभाव हो और जिसकी सेवा की जाय, उसमें
भगवद्बुद्धि (भगवद्भाव) हो तो वह सेवा परमात्मप्राप्ति करानेवाली ही होगी ।
एक विलक्षण बात है कि अगर भगवान्की उपासनामें सकामभाव
रह भी जाय तो भी वह उपासना उद्धार करनेवाली ही होती है, पर
भगवान्में अनन्यभाव होना चाहिये । भगवान्ने गीतामें अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी‒इन चारों भक्तोंको उदार कहा है (७ । १८),
और ‘मेरा पूजन करनेवाले मेरेको ही प्राप्त होते हैं’‒ऐसा कहा है (७ । २३; ९ । २५) । मनुष्य
किसी भी भावसे भगवान्में लग जाय तो उसका उद्धार होगा ही ।
देवता आदिकी उपासनाका फल तो अन्तवाला (नाशवान्) होता है (७ ।
२३), क्योंकि देवताओंके उपासक पुण्यके बलपर स्वर्गादि ऊँचे लोकोंमें जाते हैं और पुण्यके
समाप्त होनेपर फिर लौटकर आते हैं । परंतु परमात्माकी प्राप्ति अन्तवाली नहीं होती
(८ । १६), क्योंकि यह जीव परमात्माका अंश है (१५ । ७) । अतः जब यह जीव
अपने अंशी परमात्माकी कृपासे उनको प्राप्त हो जाता है तो फिर वह वहाँसे लौटता नहीं
( ८ । २१, १५ । ६) । कारण कि परमात्माकी कृपा
नित्य है और स्वर्गादि लोकोंमें जानेवालोंके पुण्य अनित्य हैं ।
ज्ञातव्य
प्रश्न‒भगवान्ने
कहा है कि भूत-प्रेतोंकी उपासना करनेवाले भूत-प्रेत[1] ही
बनते हैं (९ । २५); ऐसा
क्यों ?
उत्तर‒भूत-प्रेतोंकी उपासना करनेवालोंके अन्तःकरणमें भूत-प्रेतोंका ही महत्त्व होता है
और भूत-प्रेत ही उनके इष्ट होते हैं; अतः अन्तकालमें उनको प्रेतोंका ही चिन्तन होता है और चिन्तनके
अनुसार वे भूत-प्रेत बन जाते हैं । (८ । ६) ।
[1] जो यहाँसे
चला जाता है, मर जाता है, उसको ‘प्रेत’ कहते हैं और उसके पीछे जो मृतक-कर्म किये जाते हैं,
उनको शास्त्रीय परिभाषामें ‘प्रेतकर्म’
कहते हैं । जो पाप-कर्मोंके फलस्वरूप भूत,
पिशाचकी योनिमें चले जाते हैं,
उनको भी ‘प्रेत’ कहा जाता है; अतः यहाँ पापोंके कारण नीच योनियोंमें गये हुएका वाचक ही ‘प्रेत’
शब्द आया है ।
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