।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण सप्तमी, वि.सं. २०७६ शुक्रवार
गीताका अनासक्तियोग
        



प्रश्न–कभी-कभी दूसरेको सिखानेके लिये सेवा लेनी पड़ती है, क्या यह ठीक है ?

उत्तर–बालक आदिको सिखानेके लिये सेवा लेना वास्तवमें सेवा करना ही है । लेनेकी क्रिया तो दीखती है, पर वास्तवमें लिया नहीं है, प्रत्युत शिक्षा दी है ।

प्रश्न–सभीके शरीर अनित्य हैं, फिर उनकी सेवा क्यों की जाय ?

उत्तर–अनित्यकी सेवा करनेसे नित्यकी प्राप्ति होती है । कारण कि अनित्यकी सेवा करनेसे अनित्यकी आसक्तिका त्याग हो जाता है और आसक्तिका त्याग होनेपर नित्यकी प्राप्ति हो जाती है । वास्तवमें सेवा केवल अनित्य शरीरकी नहीं होती, प्रत्युत शरीरी (शरीरवाले) की होती है । व्यवहारमें जड चीज जडता (शरीर) तक ही पहुँचती है, चेतनतक नहीं; परन्तु सेवा लेनेवाला अपनेको शरीर मानता है, इसलिये वह सेवा चेतनकी होती है–‘जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि’ (मानस, अयोध्या १४२/१) । तात्पर्य है कि हम शरीरको अपना मानते हैं, इसलिये शरीरतक पहुँचनेवाली चीज अपनेतक पहुँचती है ।

भक्त तो सबको भगवान्‌का ही स्वरूप मानकर उनकी सेवा करता है–‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य’ (गीता १८/४६), ‘मैं सेवक सचराचर रूप स्वामी भगवंत’ (मानस, किष्किन्धाकाण्ड ४) । भगवान्‌में आत्मीयता होनेसे उसकी संसारमें समता हो जाती है–

तुलसी ममता राम सों समता सब संसार ।
राग न रोष न दोष दुख दस भए भव पार ॥
                                                    (दोहावली ९४)

संसारमें समता होनेसे आसक्ति मिट जाती है । यही अनासक्तियोग है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


–‘जित देखूँ तित तूँ ’ पुस्तकसे