।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण द्वादशी, वि.सं. २०७६ बुधवार
भगवद्भक्तिका रहस्य
        



उन सर्वेश्वर प्रभुमें भक्तका हृदय धारावाहिकरूपसे तन्मय हो जाता है । इस प्रकार हृदयकी तल्लीनता तो मारीच, कंस, शिशुपाल आदिकी भाँती भय और द्वेषके कारण भी हो सकती है । किन्तु वह तल्लीनता भक्तिमें परिणत नहीं हो सकती; क्योंकि उसे भक्तिरसके आनन्दका अनुभव नहीं होता । जैसे कोई व्यक्ति सर्वलोकपावनी गंगाजीमें वैशाखमासमें स्नान करता है तो गंगास्नानसे उसके पापोंका नाश होकर अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और उसे स्नान करनेमें भी प्रत्यक्ष ही अपूर्व रसानुभूति–आनन्दानुभव होता है, किन्तु जो माघमासमें गंगास्नान करता है, उसके पापोंका तो अवश्य नाश हो जाता है, पर शीतके कारण उसे स्नान करनेमें आनन्द नहीं आता, प्रत्युत उसका आनन्दांश तिरस्कृत होकर उसे कष्टका अनुभव होता है । इसी तरह भय-द्वेष आदिके कारण भगवदाकार अन्तःकरणवालोंका आनन्दांश तिरोहित होकर उनका हृदय दुःखित और चिन्तित रहता है । इसलिए उनके अन्तःकरणकी तदाकारता भक्तिमें शामिल नहीं है । अतः भगवान्‌के प्रति आत्मीयताको लेकर दृढ़ विश्वास और प्रेमपूर्वक जो अन्तःकरणका भगवदाकार हो जाना है, वही भक्ति है । किन्तु नास्तिकोंकी अपेक्षा तो भय-द्वेष आदिको लेकर भगवान्‌का चिन्तन करनेवाले भी अच्छे हैं । फिर उनका तो कहना ही क्या है जो भगवान्‌का श्रद्धा-प्रेमपूर्वक निरन्तर निष्काम अनन्य भजन करते हैं । जिस प्रकार गंगाकी चाल स्वाभाविक ही निरन्तर समुद्रकी ओर है, इसमें न तो उसका अपना कोई प्रयोजन है और न वह कहीं ठहरती ही है, इसी प्रकार अनन्य भक्त न तो कुछ चाहता ही है और न कहीं भगवत्स्मरणसे विराम ही लेते हैं; वे तो नित्य-निरन्तर निष्कामभावसे भजन ही करते रहते हैं । श्रीनारदजीने भी कहा है–‘भक्त एकान्तिनो मुख्याः’ (नारदभक्तिसूत्र-६७)

(४) एकमात्र भगवान्‌को इष्ट मानकर उन्हींकी अनन्य भक्ति करना ही सर्वश्रेष्ठ भक्ति है । इसलिए सम्पूर्ण जगत्‌को भगवान्‌का स्वरूप समझकर भी ऐसी भक्तिका साधन किया जा सकता है; क्योंकि स्वयं भगवान्‌ ही जगत्‌के रूपमें प्रकट हुए हैं, इसीलिये यह सारा ब्रह्माण्ड भगवान्‌का ही स्वरूप है एवं देवता आदिमें भी भगवान्‌की बुद्धि करके भी भक्ति की जा सकती है और इसका फल भी भगवत्प्राप्ति ही है । इस प्रकारकी भगवान्‌की भक्ति करनेवालेंमें दो बातें प्रधान होनी चाहिये–साधकमें हो निष्कामभाव और उपास्यमें हो भगवद्बुद्धि । इससे भगवान्‌की प्राप्ति निश्चय ही हो जाती है । किन्तु समस्त जगत्‌में भगवद्बुद्धि न होकर भी साधकमें पूर्ण निष्कामभाव हो तो भी उसकी सेवाका फल भगवत्प्राप्ति ही है । भगवान्‌की भक्ति तो सकामभावसे करनेपर भी ध्रुवकी भाँती भगवत्कृपासे अभीष्ट फलकी सिद्धिपूर्वक भगवान्‌की प्राप्ति हो जाती है । यदि कोई देवताओंको देवता मानकर भी निष्कामभावसे केवल भगवद् आज्ञापालनपूर्वक भगवान्‌को प्रसन्न करनेके लिए ही उसकी भक्ति करता है तो उसका फल भी भगवत्प्राप्ति ही होता है । फिर जो स्वयं भगवान्‌की ही निष्कामभावसे नित्य-निरन्तर अनन्य भक्ति करते हैं, उन अनन्य भक्तोंको भगवान्‌ मिलें–इसमें तो बात ही क्या है ।  भगवान्‌ने गीतामें कहा है–

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥
                                                    (८/१४)


‘हे अर्जुन ! जो पुरुष मुझमें अनन्यचित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तमको स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ ।’