सन्त-महात्माओंने मैं-मेरीका त्याग करनेके लिये
कहा है । वस्तुओंका
त्याग तो स्वतः ही हो रहा है । संसारकी मात्र वस्तुएँ प्रतिक्षण आपसे विमुक्त हो
रही हैं । यह बात बहुत खयाल करनेकी, जाननेकी, समझनेकी है । मेरे मनमें तो ऐसी बात
आती है कि रोजाना ही इस बातको कह लें, सुन लें और रोजाना विचार करें । यह दृश्यमात्र अदृश्य होनेवाला है । यह दर्शन अदर्शनमें भर्ती
हो रहा है । सब-का-सब संसार मौतकी तरफ जा रहा है । सम्पूर्ण सृष्टि महाप्रलयकी तरफ
जा रही है । जितने दिन व्यतीत होते हैं, उतने ही हम मौतके नजदीक जाते हैं । एक दिन कुछ भी नहीं रहेगा और वह दिन
भी नजदीक आ रहा है ! जितने भी शरीर हैं, सब-के-सब प्रतिक्षण मरनेकी तरफ जा रहे हैं
। दूसरा कोई काम होगा कि नहीं होगा‒इसमें सन्देह है, पर मरना होगा कि नहीं
होगा‒इसमें कोई सन्देह, विकल्प नहीं है । भविष्यकी बात कोई नहीं कह सकता कि
क्या होगा, कैसे होगा, होगा कि नहीं होगा; परन्तु ‘मरना होगा’‒यह बात बिलकुल निःशंक, निधड़क
होकर कही जा सकती है ।
बन्धन क्या है ? न बदलनेवालेने बदलनेवालेके साथ
एकता मान ली‒यही बन्धन है । अगर कोई विवेकी पुरुष बदलनेवाले और न बदलनेवालेको अलग-अलग देख ले अर्थात् बदलनेवाला मेरा स्वरूप नहीं हैं, मेरा स्वरूप तो न बदलनेवाला
है‒ऐसा अनुभव कर ले तो आज ही मुक्त हो जाय । इस बातका ठीक-ठीक ज्ञान होना चाहिये ।
केवल सीखना नहीं है । पुस्तकोंसे हम सीख सकते हैं, सीखकर पण्डित कहला सकते हैं, पर
वास्तवमें सीखनेवाला पण्डित नहीं होता, ठीक-ठीक जाननेवाला ही पण्डित होता है । सीखनेसे काम नहीं
बनेगा । सीखनेवाला तोतेकी तरह होता है । तोतेको सीखा दो तो वह
‘राधेकृष्ण-गोपीकृष्ण’ बोलना सीख जायगा और जब बुलवाओगे, तब बोल देगा । परन्तु जब
कोई बिल्ली मारने आयेगी, तब वह ‘टें-टें’ करने लगेगा । अरे, अब तो
‘राधेकृष्ण-गोपीकृष्ण’ बोल, अन्तसमयमें भगवान्का नाम ले, जिससे उद्धार हो जाय ! पर वह समझता ही नहीं कि भगवान्का नाम क्या होता है
?
सीखा हुआ भी भगवान्का नाम आ जाय तो कल्याण हो
जाता है । ऐसी कथाएँ पुराणोंमें आती हैं । ‘गोविन्दनामग्रहणशेषाधरं विदुः’‒किसी कारणसे अन्तसमयमें भगवान्का नाम आ जाय
तो सब पाप नष्ट हो जाते हैं । एक वेश्या अपने तोतेको ‘राधेकृष्ण-गोपीकृष्ण’ बोलना सीखा रही थी कि अचानक
साँपने काट लिया । वह ‘राधेकृष्ण-गोपीकृष्ण’ कहती रही और उसका उद्धार हो गया ।
सन्तोंकी वाणीमें भी ऐसी कई कथाएँ आती हैं । एक बार एक बधिक पशु-पक्षियोंको
मारनेके लिये धनुष-बाण लेकर जंगलमें घूम रहा था । एक पेड़पर पपीहा बैठा था । इधर तो
बधिक उसके ऊपर बाणका निशाना लगाता है और उधर एक बाज उसी पपीहेको मारनेके लिये धावा
बोलता है । ऐसे संकटमें पपीहेने भगवान्को याद किया । पूर्वजन्मके
संस्कारसे पशु-पक्षियोंमें भी ऐसी बात आ जाती है, जो मनुष्योंमें भी नहीं आती ।
कबके संस्कार न जाने कब जाग्रत् हो जायँ‒इसका पता नहीं चलता । अचानक उस
वृक्षमेंसे एक साँप निकला और उसने बधिकको काट लिया । साँपके काटते ही बधिकका हाथ
हिला और बाण छूट गया । वह बाण जाकर बाजको लगा । बधिक और बाज‒दोनों मर गये और
पपीहेकी रक्षा हो गयी ।
चातक तरु ठाणे शिर अरि जाणे पारधि वाणे दिसताणे ।
जाकूँ अहि हाणे शर छूटाणे
जाय लगाणे सीचाणे ॥
पप्पीह तु प्राण टल विधनाणे हरिहि पिछाणे निजहेतम् ।
ब्रह्म हो अविनाशी आनंदराशी दोषविनाशी सुखदेतम् ॥
(करुणानिधान १५)
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