तत्त्व
अनादि-अनन्त और स्वतःसिद्ध है । वह जैसा है, वैसा ही उसको जानना है और उसको जाननेपर
वह जैसा था, वैसा ही रहता है । तात्पर्य है कि ज्ञान (बोध) होनेपर ऐसा
अनुभव नहीं होता कि इतने दिन मैं अज्ञानी था, अब ज्ञानी हो गया हूँ अथवा मेरा अज्ञान मिट गया है और मेरेको ज्ञान हो गया
है ।
संसारकी निवृत्ति और
परमात्माकी प्राप्ति स्वतः है । नित्यनिवृत्तकी ही निवृत्ति होती है और
नित्यप्राप्तकी ही प्राप्ति होती है । वास्तवमें न निवृत्ति है, न प्राप्ति है । इसलिये तत्त्वज्ञान
होनेपर न निवृत्ति होती है, न प्राप्ति होती है, प्रत्युत निवृत्ति-प्राप्तिकी
दृष्टि (मान्यता) मिटती है और तत्त्व है ज्यों रह जाता है[*] । इसी तरह वास्तवमें न ज्ञान है, न
अज्ञान है । आजतक कभी कोई
ज्ञानी हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं । कारण कि ज्ञानमें व्यक्तित्व
नहीं है । अतः ज्ञान और ज्ञानी, अज्ञान और अज्ञानी–ये दोनों
अज्ञानिओंकी दृष्टि में ही हैं । इसलिये साधक
माना हुआ है और सिद्ध स्वतःसिद्ध है !
प्रश्न–परमात्मतत्त्व
इतना सुगम है कि उधर दृष्टि डालनेमात्रसे उसकी प्राप्ति हो जाय तो फिर इसमें बाधा
क्या लग रही है ?
उत्तर–जिस रीतिसे सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्ति होती है, उसी रीतिसे परमात्माकी
प्राप्ति भी होती है–यह मान्यता परमात्मप्राप्तिमें बहुत बाधक है । सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्ति तो कर्मसे होती है, पर परमात्माकी
प्राप्ति कर्मसे नहीं होती, प्रत्युत भाव और बोधसे होती है । कारण कि
सांसारिक वस्तुओंको तो बनाना पड़ता है, पैदा करना पड़ता है, कहींसे लाना पड़ता है,
उनके लिये कहीं जाना पड़ता है; परन्तु परमात्माको बनाना नहीं पड़ता, पैदा नहीं करना
पड़ता, कहींसे लाना नहीं पड़ता, उसके लिये कहीं जाना नहीं पड़ता । परमात्मा सम्पूर्ण देश, काल,
वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, अवस्था आदिमें ज्यों-का-त्यों विद्यमान है ।
उसकी प्राप्तिकी जोरदार जिज्ञासा नहीं है, इसीलिये उसकी प्राप्ति नहीं हो रही है । जिज्ञासा न होनेका कारण है–शरीरके साथ एकता मानकर सुख भोगना । जैसे जालमें
फँसी हुई मछली आगे नहीं बढ़ सकती, ऐसे ही सांसारिक सुख (भोग और संग्रह)-में आसक्त
मनुष्य पमात्माकी प्राप्तिका निश्चय भी नहीं कर सकता[†] !
सुख भोगना अपने विवेकका अनादर है । अगर मनुष्य
अपने विवेकको महत्त्व दे तो वह सुख नहीं भोग सकेगा । कारण कि भोग्य वस्तुको स्थायी मानकर ही सुखभोग होता है । उसको
स्थायी माने बिना सुखभोग हो ही नहीं सकता । शरीर-संसार प्रतिक्षण बदलते हैं, एक
क्षण भी स्थिर नहीं रहते–ऐसा विवेक होनेपर मनुष्य सुख भोग ही नहीं सकता । कारण कि
विवेककी जागृति होनेपर मनुष्यकी स्थिति शरीरमें नहीं रहती, प्रत्युत स्वरूपमें
रहती है । इसलिये मनुष्यको अपने विवेकको महत्त्व देना चाहिये । अगर मनुष्य अपने
विवेकको महत्त्व नहीं देगा तो क्या वृक्ष महत्त्व देंगे ? क्या पशु महत्त्व देंगे
? उसमें और पशुमें क्या फर्क हुआ ?
संसारमें कोई भी
वस्तु स्थिर नहीं है; प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण नाशकी ओर जा रही है–इस बातको सीखना
नहीं है, प्रत्युत समझना है, अनुभव करना है । अनुभव करनेपर सुखासक्ति नहीं रहेगी ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
–‘वासुदेवः
सर्वम्’ पुस्तकसे
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
(गीता २/४४)
‘उस पुष्पित (भोग और
ऐश्वर्यकी प्राप्तिका वर्णन करनेवाली) वाणीसे जिनका अन्तःकरण भोगोंकी तरफ खिंच गया
है और जो भोग तथा ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, उन मनुष्योंकी परमात्मामें निश्चयात्मिका
बुद्धि नहीं होती ।’
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