प्रश्न–साधन
आगे बढ़ रहा है–इसकी पहचान क्या है ?
उत्तर–साधकका संसारमें जितना कम आकर्षण हो और भगवान्में जितना
ज्यादा आकर्षण हो, उतना ही वह साधनमें आगे बढ़ रहा है । साधनमें आगे बढ़नेपर
राग-द्वेष उत्तरोत्तर कम होते जाते हैं । अगर पहलेकी अपेक्षा राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि कम नहीं हुए, चित्तमें शान्ति
नहीं आयी तो क्या साधन किया ?
प्रश्न–साधन
पूर्ण (सिद्ध) होनेपर क्या होता है ?
उत्तर–साधन सिद्ध होनेपर कृतकृत्यता, ज्ञातज्ञातव्यता तथा प्राप्तप्राप्तव्यता हो
जाती है अर्थात् कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं
रहता । साधकको उस परम लाभकी प्राप्ति हो जाती है, जिसकी प्राप्ति होनेपर
उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह
महान्-से-महान् दुःखसे भी कभी विचलित नहीं किया जा सकता[1] ।
सिद्ध होनेपर अपनेमें अभाव तो रहता नहीं और विशेषता दीखती
नहीं । जबतक साधकको अपनेमें विशेषता दीखती है, वह अपनेको
सिद्ध मानता है, तबतक उसमें व्यष्टि अहंकार (व्यक्तित्व) रहता है । जबतक व्यष्टि
अहंकार रहता है, तबतक परिच्छिन्नता, विषमता, जडता, अभाव, अशान्ति, कर्तृत्व,
भोक्तृत्व आदि दोष विद्यमान रहते हैं ।
प्रश्न–ऊँचे
साधक और सिद्धमें क्या अन्तर होता है ?
उत्तर‒साधनकी ऊँची स्थिति प्राप्त होनेपर जाग्रत्-अवस्थामें तो
साधकमें जड-चेतनका विवेक अच्छी तरह रहता है, पर निन्द्रावस्थामें उसकी विस्मृति हो
जाती है । अतः नींदसे जगनेपर वह साधक विवेकको पकड़ता है । परन्तु सिद्धका विवेक
प्रत्येक अवस्थामें, नित्य-निरन्तर, स्वतः-स्वाभाविक रहता है । नींदसे जगनेपर उसे
विवेकको पकड़ना नहीं पड़ता ।
ऊँचे साधक और सिद्धकी पहचान दूसरा व्यक्ति नहीं
कर सकता; क्योंकि यह स्वसंवेद्य स्थिति है ।
प्रश्न–तत्त्वज्ञ
और तत्त्वनिष्ठमें क्या अन्तर है ?
उत्तर–तत्त्वज्ञमें कुछ कोमलता रहती है और तत्त्वनिष्ठमें दृढ़ता रहती है ।
तत्त्वज्ञका व्यवहार जलमें खींची गयी लकीरके समान और तत्त्वनिष्ठका व्यवहार
आकाशमें खींची गयी लकीरके समान होता है । तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञमें
तो पहलेका कुछ संस्कार (स्वभाव) रहता है, पर तत्त्वनिष्ठमें पहलेका संस्कार सर्वथा
नहीं रहता, प्रत्युत उसमें अन्तःकरणसहित संसारमात्रका अत्यन्त अभाव तथा
परमात्मतत्त्वका दृढ़ भाव निरन्तर ज्यों-का-त्यों स्वतः-स्वाभाविक जाग्रत् रहता है ।
तत्त्वज्ञान होनेके बाद भी तत्त्वनिष्ठा होनेमें कुछ समय लग
सकता है । परन्तु उसके लिये कोई अभ्यास या उद्योग नहीं
करना पड़ता, प्रत्युत समय पाकर अपने-आप निष्ठा हो जाती है । जैसे, काँटा
निकालनेके बाद भी पीड़ा रह जाती है, पर वह पीड़ा समय पाकर अपने-आप मिट जाती है ।
आगपर पानी डालनेसे आग बुझ जाती है, पर राखमें गरमी रह जाती है । वह गरमी समय पाकर
अपने-आप मिट जाती है । वृक्षकी जड़ काटनेके बाद भी उसके तनेपर लगे पत्ते हरे रहते
हैं, पर वे समय पाकर अपने-आप सूख जाते हैं । नींद खुलनेके बाद भी आँखोंमें कुछ
भारीपन रहता है, पर कुछ देरके बाद वह अपने-आप मिट जाता है । तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञ समय पाकर अपने-आप तत्त्वनिष्ठ हो जाता है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
–‘साधन-सुधा-सिंधु’
पुस्तकसे
यस्मिन्स्थितो
न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
(गीता ६/२२)
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