भगवान्का
साक्षात् अंश होनेसे जीवका भगवान्से साधर्म्य है । अतः जैसे भगवान् निर्दोष हैं,
ऐसे जीव भी स्वरूपसे सर्वथा निर्दोष है । यह निर्दोषता
अपने उद्योगसे लायी हुई नहीं है, प्रत्युत स्वतःसिद्ध और सहज है–
ईस्वर अंस जिव अबिनाशी ।
चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
(मानस ७/११७/१)
मनुष्योंके भीतर यह बात बैठी हुई है कि हम दोषोंको दूर करेंगे, निर्दोष
बनेंगे, तब भगवान्की प्राप्ति होगी । परन्तु सांसारिक वस्तुओंको प्राप्त करनेका
जो तरीका है, वही तरीका परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिका नहीं है । सांसारिक वस्तुओंकी
प्राप्ति तो अप्राप्तकी प्राप्ति है, पर परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति नित्यप्राप्तकी
प्राप्ति है । स्वरूप स्वतः स्वाभाविक निर्दोष तथा
नित्यप्राप्त है । अतः इस
निर्दोषताको स्वीकार करना है, इसको बनाना नहीं है और दोषोंसे उपरत होना है, उसको
मिटाना नहीं है । तात्पर्य है कि अपनेमें निर्दोषता तो वास्तवमें है और
सदोषता मानी हुई है, है नहीं । अतः इस मान्यताका त्याग करना है । अगर दोषोंको अपनेमें स्वीकार करके फिर
उनको दूर करनेका प्रयत्न करेंगे तो वे दूर नहीं होंगे, प्रत्युत दृढ़ हो जायँगे ।
कारण कि दोषोंको अपनेमें मानकर उनको सत्ता देंगे, तभी तो उनको मिटानेका उद्योग
करेंगे !
यह प्रत्येक साधकका अनुभव है कि साधन करनेसे पहले दोष जितने वेगसे आता था,
उतने वेगसे अब नहीं आता; जितनी देर ठहरता था, उतनी देर अब नहीं ठहरता; और जितनी जल्दी आता था, उतनी जल्दी अब नहीं आता ।
ऐसा फर्क अपनेमें देखकर साधकका उत्साह बढ़ना चाहिये कि
वास्तवमें दोष अपनेमें नहीं है । अगर ये अपनेमें होते तो ऐसा फर्क देखनेमें
नहीं आता । तात्पर्य है कि दोषोंमें तो फर्क पडा, पर अपनेमें कोई फर्क नहीं पडा;
अतः दोष अपनेसे अलग हैं ।
काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि जितने भी
दोष हैं, सब असत् हैं और असत्के सम्बन्धसे पैदा हुए हैं । जैसे नींदके
सम्बन्धसे जाग्रतकी विस्मृति हो जाती है और स्वप्न दीखने लगता है, ऐसे ही असत्के सम्बन्धसे स्वतःसिद्ध निर्दोषताकी विस्मृति हो जाती है
और दोष दीखने लगते हैं । दोष स्वप्नकी सृष्टिके समान दीखते तो हैं, पर
वास्तवमें इनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है ।
दोष आगन्तुक हैं, पर निर्दोष स्वरूप आगन्तुक नहीं है । यह सबका अनुभव है कि
दोषोंके आनेपर भी हम रहते हैं और दोषोंके चले जानेपर भी हम रहते हैं । दोष
आते-जाते हैं, पर हम आते-जाते नहीं, प्रत्युत ज्यों-के-त्यों रहते हैं । हमें दोषोंके आने-जानेका भान होता है तो इससे अपनेमें
स्थायीरूपसे निर्दोषता सिद्ध होती है । कारण कि निर्दोष हुए बिना दोषोंका भान नहीं
होता । हम निर्दोष हैं, तभी दोषोंका भान होता है और जिसका भान होता है, वह अपनेसे
दूर होता है । कैसा ही दोष क्यों न हो, वह मन-बुद्धिके साथ तादात्म्य होनेसे दोष अपनेमें दीखने लगता है ।
प्रकृतिका कार्य होनेसे मन-बुद्धि भी दोषी और अनित्य हैं । हमारा सम्बन्ध न मन-बुद्धिके साथ है और न उनमें आनेवाले
दोषोंके साथ ।
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