मैं तो सीधी-सादी बात बताता हूँ ।
पर भाई-बहनोंको विश्वास नहीं होता । अरे भाई ! मैं आपसे ठगाई नहीं करता हूँ, आपको धोखा
नहीं देता हूँ, आपके साथ विश्वासघात नहीं करता
हूँ । आपको जल्दी-से-जल्दी अनुभव हो जाय,
वह बात बताता हूँ । उसमें
आप आड़ लगाते हो कि जल्दी कैसे हो जायगा ? मैं कहता हूँ कि आप करके
देखो, अगर जल्दी न हो जाय तो लम्बे रास्तेपर चले जाना । मैं उसके लिये मना तो करता
नहीं हूँ । जैसा मैं कहूँ, वैसा करो । अगर जल्दी हो जाय तो नफा ही है, नहीं तो
देरीवाला मार्ग आपके लिये सदासे खुला ही है । आपको बाधा क्या लगी ? मेरे कहे
अनुसार करोगे तो लम्बे रास्तेमें आपको बहुत सहायता मिलेगी अथवा उसकी जरूरत नहीं रहेगी
। मेरेसे पूछो तो लम्बे रास्तेपर चलनेकी जरूरत ही नहीं रहेगी । देखो, यह बात जल्दी हाथ नहीं लगती । इस बातका लोगोंको पता नहीं है
। मुझे तो खुदको पता नहीं था । किसी योग्यता,
विद्या, ध्यान, समाधि आदिके बिना सीधी वह स्थिति प्राप्त हो जाय, जिसमें कुछ करना,
जानना, पाना बाकी न रहे–इसका मुझे पता नहीं था । जब पता नहीं था, तब संयम
किया, एकान्तमें रहा, किसीसे मिलना छोड़ दिया । आपको आश्चर्य आयेगा कि रोटी भी
तौलकर खाता । साग-रोटी तौल ली कि बस, इससे अधिक नहीं खाना । इतना सोना है, इससे
अधिक नहीं सोना । अपने पास बहुत ही कम चीजें रखनी । किसीसे कोई चीज माँगनी नहीं ।
यह चीज मेरे पास नहीं है–ऐसा किसीसे कभी नहीं कहना । इस प्रकार मैं वर्षों रहा हूँ
। कितनी-कितनी कठिनता भोगी है, बताऊँ तो आप आश्चर्य करें । मैं जानता हूँ कि साधु
माँग नहीं करे तो उसकी इज्जत बढ़ जायगी, बड़ी शान्ति मिलेगी; अगर वह माँग
करेगा तो महान् मँगता हो जायगा, नीचा हो जायगा । ये बातें कहना बढ़िया नहीं है, पर आपको
विश्वास करानेके लिये कहता हूँ कि मैंने वह सब करके देखा है । वह भी एक
रास्ता है, पर लम्बा है । किया साधन निष्फल नहीं जायगा, पर बहुत देरी लगेगी । मेरी
धुन तो यह है कि जल्दी-से-जल्दी सिद्धि कैसे हो । अब भी मैं इसी खोजमें हूँ ।
हमारे लिये कुछ चाहिये यही मरण है । हमारे लिये
दवाई चाहिये, हमारे लिये कपड़े चाहिये, हमारे लिये मकान चाहिये, हमारे लिये सवारी
चाहिये, तो वह महान् नीचा हो गया । चीजोंका गुलाम हो गया तो नीचा ही हुआ, ऊँचा
कैसे हुआ ? मेरेको
माँगनेवाला बहुत बुरा लगता है, मेरेको कोई जूता मारे–ऐसा लगता है । मेरे
साथ रह करके कोई साधु यह सवाल उठाये कि मेरेको यह चीज चाहिये, तो यह महान्
बेइज्जती है; साधुपना तो है ही नहीं, मनुष्यपना भी नहीं है ! मनुष्यकी जरूरत दूसरोंको होती है । रोटी भी न मिले तो
नहीं सही । आप कहेंगे कि रोटी न खानेसे मर जायँगे, तो क्या रोटी खाते-खाते नहीं
मरेंगे ? चाहे भूखे मरो, चाहे खाते-खाते मरो, मरना तो है
ही । फिर गुलामी लेकर क्यों मरें ? तुच्छता लेकर, तिरस्कृत होकर, पददलित होकर
क्यों मरें ? मरें तो इज्जतसे मरें । कुछ न माँगनेसे बहुत शान्ति मिलती है, बहुत
आनन्द मिलता है । जीवन सफल हो जाता है । फायदा इतना होता है, जिसका कोई ठिकाना
नहीं । ऐसा फायदा होता है, जो कभी किसी जन्ममें नहीं हुआ ।
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