।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ शुक्ल नवमी, वि.सं.२०७७ रविवार
मनुष्य-जीवनकी सफलता



मैं तो सीधी-सादी बात बताता हूँ । पर भाई-बहनोंको विश्वास नहीं होता । अरे भाई ! मैं आपसे ठगाई नहीं करता हूँ, आपको धोखा नहीं देता हूँ, आपके साथ विश्वासघात नहीं करता हूँ । आपको जल्दी-से-जल्दी अनुभव हो जाय, वह बात बताता हूँ । उसमें आप आड़ लगाते हो कि जल्दी कैसे हो जायगा ? मैं कहता हूँ कि आप करके देखो, अगर जल्दी न हो जाय तो लम्बे रास्तेपर चले जाना । मैं उसके लिये मना तो करता नहीं हूँ । जैसा मैं कहूँ, वैसा करो । अगर जल्दी हो जाय तो नफा ही है, नहीं तो देरीवाला मार्ग आपके लिये सदासे खुला ही है । आपको बाधा क्या लगी ? मेरे कहे अनुसार करोगे तो लम्बे रास्तेमें आपको बहुत सहायता मिलेगी अथवा उसकी जरूरत नहीं रहेगी । मेरेसे पूछो तो लम्बे रास्तेपर चलनेकी जरूरत ही नहीं रहेगी । देखो, यह बात जल्दी हाथ नहीं लगती । इस बातका लोगोंको पता नहीं है । मुझे तो खुदको पता नहीं था । किसी योग्यता, विद्या, ध्यान, समाधि आदिके बिना सीधी वह स्थिति प्राप्त हो जाय, जिसमें कुछ करना, जानना, पाना बाकी न रहे–इसका मुझे पता नहीं था । जब पता नहीं था, तब संयम किया, एकान्तमें रहा, किसीसे मिलना छोड़ दिया । आपको आश्चर्य आयेगा कि रोटी भी तौलकर खाता । साग-रोटी तौल ली कि बस, इससे अधिक नहीं खाना । इतना सोना है, इससे अधिक नहीं सोना । अपने पास बहुत ही कम चीजें रखनी । किसीसे कोई चीज माँगनी नहीं । यह चीज मेरे पास नहीं है–ऐसा किसीसे कभी नहीं कहना । इस प्रकार मैं वर्षों रहा हूँ । कितनी-कितनी कठिनता भोगी है, बताऊँ तो आप आश्चर्य करें । मैं जानता हूँ कि साधु माँग नहीं करे तो उसकी इज्जत बढ़ जायगी, बड़ी शान्ति मिलेगी; अगर वह माँग करेगा तो महान् मँगता हो जायगा, नीचा हो जायगा । ये बातें कहना बढ़िया नहीं है, पर आपको विश्वास करानेके लिये कहता हूँ कि मैंने वह सब करके देखा है । वह भी एक रास्ता है, पर लम्बा है । किया साधन निष्फल नहीं जायगा, पर बहुत देरी लगेगी । मेरी धुन तो यह है कि जल्दी-से-जल्दी सिद्धि कैसे हो । अब भी मैं इसी खोजमें हूँ । 

हमारे लिये कुछ चाहिये यही मरण है । हमारे लिये दवाई चाहिये, हमारे लिये कपड़े चाहिये, हमारे लिये मकान चाहिये, हमारे लिये सवारी चाहिये, तो वह महान् नीचा हो गया । चीजोंका गुलाम हो गया तो नीचा ही हुआ, ऊँचा कैसे हुआ ? मेरेको माँगनेवाला बहुत बुरा लगता है, मेरेको कोई जूता मारे–ऐसा लगता है । मेरे साथ रह करके कोई साधु यह सवाल उठाये कि मेरेको यह चीज चाहिये, तो यह महान् बेइज्जती है; साधुपना तो है ही नहीं, मनुष्यपना भी नहीं है ! मनुष्यकी जरूरत दूसरोंको होती है । रोटी भी न मिले तो नहीं सही । आप कहेंगे कि रोटी न खानेसे मर जायँगे, तो क्या रोटी खाते-खाते नहीं मरेंगे ? चाहे भूखे मरो, चाहे खाते-खाते मरो, मरना तो है ही । फिर गुलामी लेकर क्यों मरें ? तुच्छता लेकर, तिरस्कृत होकर, पददलित होकर क्यों मरें ? मरें तो इज्जतसे मरें । कुछ न माँगनेसे बहुत शान्ति मिलती है, बहुत आनन्द मिलता है । जीवन सफल हो जाता है । फायदा इतना होता है, जिसका कोई ठिकाना नहीं । ऐसा फायदा होता है, जो कभी किसी जन्ममें नहीं हुआ ।