संग्रह
करना और भोग भोगना–ये दोनों परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें बाधक हैं । रुपये-पैसे
मेरे पास आ जायँ, सामग्री मेरेको मिल जाय, भोग मैं भोग लूँ–यह जो भीतरकी लालसा है,
यह परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति नहीं होने देती । कारण कि
संग्रह करेगा तो शरीरसे ही करेगा और सुख भोगेगा तो शरीरसे ही भोगेगा । अतः इस
हाड़-माँसके पुतलेमें लिप्त रहनेसे, इसकी गुलामी करनेसे चिन्मय तत्त्वकी प्राप्ति
नहीं होगी । परन्तु दूसरोंके सुखमें सुखी होनेसे भोग भोगनेकी
इच्छा और दूसरोंके दुःखमें दुःखी होनेसे अपने लिये संग्रहकी इच्छा नहीं रहती ।
दूसरेके
दुःखसे दुःखी होनेसे उसका दुःख दूर करनेका विचार होगा । जैसे अपना दुःख दूर करनेके
लिये हम पैसे खर्च कर देते हैं, ऐसे ही दूसरेका दुःख दूर करनेके लिये हम पैसे खर्च
कर देंगे । हम ज्यादा संग्रह नहीं कर सकेंगे ! अगर संग्रह ज्यादा हो भी जायगा, तो
उसमें अपनापन नहीं रहेगा कि यह तो सबकी चीज है । इसीलिये भागवतमें आया है–
यावद भ्रियते
जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम् ।
अधिकं
योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति
॥
(श्रीमद्भागवत
७/१४/८)
जितनेसे पेट भर जाय, उतनी ही चीज मनुष्यकी है ।
मतलब यह है कि जितनेसे भूख मिट जाय, उतना अन्न; जितनेसे प्यास मिट जाय, उतना जल;
जितनेसे शरीर निर्वाह हो जाय, उतना कपड़ा और मकान–यह अपना है । इसके सिवा अधिक अन्न
है, जल है, वस्त्र है, मकान है, निर्वाहकी अधिक सामग्री है, उसको जो अपना मानता है–अपना
अधिकार जमाता है, वह चोर है, उसको दण्ड मिलेगा । वह कहता है
कि हम किसीसे लाये है, यह तो हमारी है । पर वह हमारी कैसे ? क्योंकि जब जन्मे, तब एक धागा
साथ लाये नहीं और जब मरेंगे, तब एक कौड़ी साथ जायेगी नहीं । अतः हमारे पास जो अधिक
सामग्री है, वह उसकी है, जिसके पास सामग्रीका अभाव है । जो दूसरोंके दुःखसे
दुःखी होता है , वह अपने सुखके लिये भोग और संग्रहकी इच्छा नहीं करता । उसमें
करुणाका, दयाका भाव पैदा होता है । करुणामें जो रस है, आनन्द है, वह भोगोंमें नहीं है ।
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