।। श्रीहरिः ।।


           आजकी शुभ तिथि–
आश्विन कृष्ण षष्ठीवि.सं.२०७७, मंगलवा
षष्ठी श्राद्ध
विश्वास और जिज्ञासा


पहले केवल भगवान्‌की सत्ता स्वीकार हो जाय कि ‘भगवान्‌ है’, फिर भगवान्‌में विश्वास हो जाता है । संसारका विश्वास टिकता नहीं; क्योंकि हमें इस बातका ज्ञान है कि वस्तु, व्यक्ति आदि पहले नहीं थे, पीछे नहीं रहेंगे और अब भी निरन्तर नाशकी तरफ जा रहे हैं । परन्तु भगवान्‌के विषयमें ऐसा नहीं होता; क्योंकि शास्त्रोंसे, सन्तोंसे, आस्तिकोंसे हम सुनते हैं कि भगवान्‌ पहले भी थे, पीछे भी रहेंगे और अब भी हैं । भगवान्‌पर विश्वास बैठनेपर फिर उनमें अपनत्व हो जाता है कि ‘भगवान्‌ हमारे हैं ।’ जीवात्मा भगवान्‌का अंश है–‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७); अतः भगवान्‌ हमारे हुए । इसलिये आस्तिकभाववालोंको यह दृढ़तासे मान लेना चाहिये कि भगवान्‌ हैं और हमारे हैं । ऐसी दृढ़ मान्यता होनेपर फिर भगवान्‌से मिले बिना रहा नहीं जा सकता । जैसे, बालक दुःख पाता है तो उसके मनमें माँसे मिलनेकी आती है कि माँ मेरेको गोदीमें क्यों नहीं लेती ? उसके मनमें यह बात पैदा ही नहीं होती कि मैं योग्य हूँ कि अयोग्य हूँ, पात्र हूँ कि अपात्र हूँ ।

जैसे भगवान्‌पर विश्वास होता है, ऐसे ही भगवान्‌के सम्बन्धपर भी विश्वास होता है कि भगवान्‌ हमारे हैं । भगवान्‌ कैसे हैं, मैं कैसा हूँ–यह बात वहाँ नहीं होती । भगवान्‌ मेरे हैं; अतः मेरेको अवश्य मिलेंगे–ऐसा दृढ़ विश्वास कर ले । यह ‘मेरा’-पन बड़े-बड़े साधनोंसे ऊँचा है । त्याग, तपस्या, व्रत, उपवास, तितिक्षा आदि जितने भी साधन हैं, उन सबसे ऊँचा साधन है–भगवान्‌में अपनापन । अपनेपनमें कोई विकल्प नहीं होता । करनेवाले तो करनेके अनुसार फलको प्राप्त करेंगे, पर भगवान्‌को अपना माननेवाले मुफ्तमें पूर्ण भगवान्‌को प्राप्त करेंगे । करनेवाले जितना-जितना करेंगे, उनको उतना-उतना ही फल मिलेगा, परन्तु भगवान्‌में अपनापन होनेसे भगवान्‌पर पूर्ण अधिकार मिलेगा । जैसे, बालक माँपर अपना पूरा अधिकार मानता है कि माँ मेरी है, मैं माँसे चाहे जो काम करा लूँगा, उससे चाहे जो चीज ले लूँगा । बालकके पास बल क्या है ? रो देना–यही बल है । निर्बल-से-निर्बल आदमीके पास रोना ही बल है । रोनेमें क्या जोर लगाना पड़े ? बच्‍चा रोने लग जाय तो माँको उसका कहना मानना पड़ता है । इसी तरह रोने लग जाय कि भगवान्‌ मेरे हैं तो फिर दर्शन क्यों नहीं देते ? मेरेसे मिलते क्यों नहीं ? भीतरमें ऐसी जलन पैदा हो जाय, ऐसी उत्कण्ठा हो जाय कि भगवान्‌ मिलते क्यों नहीं ! इस जलनमें, उत्कण्ठामें इतनी शक्ति है कि अनन्त जन्मोंके पाप नष्ट हो जाते हैं; कोई भी दोष नहीं रहता, निर्दोषता हो जाती है । जो भगवान्‌के लिये व्याकुल हो जाता है, उसकी निर्दोषता स्वतः हो जाती है । व्याकुलताकी अग्निमें पाप-ताप जितने जल्दी नष्ट होते हैं, उतनी जल्दी जिज्ञासामें नहीं होते । जिज्ञासा बढ़ते-बढ़ते जब वह जिज्ञासुरूपसे हो जाती है अर्थात् जिज्ञासु नहीं रहता, केवल जिज्ञासा रह जाती है तब उसकी सर्वथा निर्दोषता हो जाती है और वह तत्त्वको प्राप्त हो जाता है ।

जबतक ‘मैं जिज्ञासु हूँ’–यह मैं-पन रहता है, तबतक जिज्ञास्य तत्त्व प्रकट नहीं होता । जब यह मैं-पन नहीं रहता, तब जिज्ञास्य तत्त्व प्रकट हो जाता है । चाहे जिज्ञासा हो, चाहे विश्वास हो, दोनोंमेंसे कोई एक भी दृढ़ हो जायगा तो तत्त्व प्रकट हो जायगा । कर्तव्यका पालन स्वतः हो जायगा; जिज्ञासुसे भी कर्तव्यका पालन होगा और विश्वासीसे भी कर्तव्यका पालन होगा । दोनों ही अपने कर्तव्य कर्मका तत्परतासे पालन करेंगे ।


विश्वासी मनुष्य कर्तव्यकी दृष्टिसे कर्तव्यका पालन नहीं करता; परन्तु भगवान्‌के वियोगमें रोता है । रोनेमें ही उसका कर्तव्य पूरा हो जाता है । उसमें केवल भगवत्प्राप्तिकी उत्कण्ठा रहती है । केवल भगवान्‌-ही-भगवान्‌ याद रहते हैं । भगवान्‌के सिवा और कोई चीज सुहाती नहीं–‘अब कुछ भी नहीं सुहावे, एक तू ही मन भावे ।’ दिनमें भूख नहीं लगती, रातमें नींद नहीं आती, बार-बार व्याकुलता होती है–‘दिन नही भूख रैन नहीं निद्रा, छिन-छिन व्याकुल होत हिया ।’ व्याकुलतामें बहुत विलक्षण शक्ति है । यह जो भजन-स्मरण करना है, त्याग-तपस्या करना है, तीर्थ-उपवास आदि करना है, ये सभी अच्छे हैं, परन्तु ये धीरे-धीरे पापोंका नाश करते हैं; और व्याकुलता होनेपर आग लग जाती है, जिसमें सब पाप भस्म हो जाते हैं ।