।। श्रीहरिः ।।

              




           आजकी शुभ तिथि–
आश्विन (अधिक) कृष्ण प्रतिपदा
वि.सं.२०७७, शुक्रवा
साधनकी चरम सीमा


किसी भी मार्गका साधक क्यों न हो, उसे अन्तमें ‘वासुदेवः सर्वम्’ तक पहुँचना है । सब कुछ परमात्मा ही हैं, मैं-तू-यह-वह नहीं है‒यहाँतक पहुँचना है । इस विषयमें साधकको कभी निराश नहीं होना चाहिये, बड़े उत्साहसे चलना चाहिये । कारण यह है कि यह सच्‍ची बात है ।

नाशवान्‌ पदार्थोंकी तरफ चलते हुए जीवको कभी सुख-शान्ति नहीं मिल सकते । इसलिये धन, सम्पत्ति, वैभव, जमीन-जायदाद आदि कितने ही मिल जायँ, तृष्णा छूटती नहीं । कारण यह है कि जीव साक्षात् परमात्माका अंश है । परमात्माका अंश प्राकृत पदार्थोंसे कैसे तृप्त हो सकता है ? भगवान्‌ने कहा है‒

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।

                                              (गीता १५/७)

‘इस संसारमें जीव बना हुआ आत्मा (स्वयं) मेरा ही सनातन अंश है ।’

भगवान्‌ने यहाँ ‘ममांशः’ (मम अंशः) नहीं कहा, प्रत्युत ‘ममैवांशः’ (मम एव अंशः) कहा । इसका तात्पर्य है कि जीव केवल भगवान्‌का ही अंश है, इसमें प्रकृतिका अंश किंचिन्मात्र भी नहीं है । यद्यपि अपरा और परा‒दोनों प्रकृतियाँ भगवान्‌की ही हैं, तथापि भगवान्‌ने कभी भी तथा कहीं भी अपरा प्रकृतिको अपना अंश नहीं बताया । पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार‒ये आठ प्रकारकी ‘अपरा प्रकृति’ हैं और जीवात्मा ‘परा प्रकृति’ हैं । ‘ममैवांशः’ कहनेका तात्पर्य है कि जीव अपरा प्रकृतिसे सर्वथा रहित है । जैसे शरीरमें माता और पिता‒दोनोंके अंशका मिश्रण है, ऐसे ही जीवमें भगवान्‌ और प्रकृति‒दोनोंके अंशका मिश्रण नहीं है । जीव केवल भगवान्‌का अंश है; अतः जैसे भगवान्‌ हैं, वैसे ही यह भी है‒

ईश्वर अंश   जीव अबिनाशी ।

चेतन अमल सहज सुखराशी ॥

                                      (मानस, उत्तर ११७/१)

शुद्ध परमात्माका अंश होनेसे जीवात्मा कर्तृत्व-भोक्तृत्वसे रहित है । इसलिये गीतामें आया है‒

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः    ।

शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥

                                                 (१३/३१)

‘हे कुन्तीनन्दन ! यह (पुरुष स्वयं) अनादि होनेसे और गुणोंसे रहित होनेसे अविनाशी परमात्मस्वरूप ही है । यह शरीरमें रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है ।’

कर्तृत्व-भोक्तृत्व वास्तवमें प्रकृतिमें ही हैं । इसलिये साधकको कर्तृत्व-भोक्तृत्वका त्याग नहीं करना है, प्रत्युत इनको अपनेमें स्वीकार ही नहीं करना है । वास्तवमें शरीरमें रहता हुआ भी स्वयं कभी कर्ता-भोक्ता बना ही नहीं, कभी बनेगा ही नहीं, कभी बन सकता ही नहीं । गीतामें आया है‒

यस्य नाहंकृतो भावो  बुद्धिर्यस्य  न  लिप्यते ।

हत्वापि सा इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥

                                                    (१८/१७)

‘जिसका अहंकृतभाव (मैं कर्ता हूँ‒ऐसा भाव) नहीं है और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती, वह (युद्धमें) इन सम्पूर्ण प्राणियोंको मारकर भी न मारता है और न बँधता है ।’