किसी भी मार्गका साधक क्यों न हो, उसे अन्तमें ‘वासुदेवः सर्वम्’ तक पहुँचना है । सब कुछ परमात्मा ही हैं, मैं-तू-यह-वह नहीं है‒यहाँतक पहुँचना
है । इस
विषयमें साधकको कभी निराश नहीं होना चाहिये, बड़े उत्साहसे चलना चाहिये । कारण यह
है कि यह सच्ची बात है । नाशवान् पदार्थोंकी तरफ चलते हुए जीवको कभी
सुख-शान्ति नहीं मिल सकते । इसलिये धन, सम्पत्ति, वैभव, जमीन-जायदाद आदि कितने ही मिल जायँ, तृष्णा छूटती
नहीं । कारण यह है कि जीव साक्षात् परमात्माका अंश है । परमात्माका अंश प्राकृत
पदार्थोंसे कैसे तृप्त हो सकता है ? भगवान्ने कहा है‒ ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
(गीता १५/७) ‘इस संसारमें जीव बना हुआ आत्मा (स्वयं) मेरा
ही सनातन अंश है ।’ भगवान्ने यहाँ ‘ममांशः’
(मम अंशः) नहीं कहा, प्रत्युत ‘ममैवांशः’ (मम एव
अंशः) कहा । इसका तात्पर्य है कि जीव केवल भगवान्का ही अंश है, इसमें प्रकृतिका
अंश किंचिन्मात्र भी नहीं है । यद्यपि अपरा और परा‒दोनों प्रकृतियाँ भगवान्की ही
हैं, तथापि भगवान्ने कभी भी तथा कहीं भी अपरा प्रकृतिको अपना अंश नहीं बताया ।
पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार‒ये आठ प्रकारकी ‘अपरा प्रकृति’ हैं और जीवात्मा ‘परा प्रकृति’ हैं । ‘ममैवांशः’
कहनेका तात्पर्य है कि जीव अपरा प्रकृतिसे
सर्वथा रहित है । जैसे शरीरमें माता और पिता‒दोनोंके अंशका मिश्रण है, ऐसे ही
जीवमें भगवान् और प्रकृति‒दोनोंके अंशका मिश्रण नहीं है । जीव केवल भगवान्का अंश
है; अतः जैसे भगवान् हैं, वैसे ही यह भी है‒ ईश्वर अंश जीव अबिनाशी । चेतन अमल सहज सुखराशी ॥ (मानस, उत्तर॰ ११७/१) शुद्ध परमात्माका अंश होनेसे जीवात्मा कर्तृत्व-भोक्तृत्वसे
रहित है । इसलिये गीतामें आया है‒ अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः । शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥
(१३/३१) ‘हे कुन्तीनन्दन ! यह
(पुरुष स्वयं) अनादि होनेसे और गुणोंसे रहित होनेसे अविनाशी परमात्मस्वरूप ही है ।
यह शरीरमें रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है ।’ कर्तृत्व-भोक्तृत्व
वास्तवमें प्रकृतिमें ही हैं । इसलिये साधकको कर्तृत्व-भोक्तृत्वका त्याग नहीं
करना है, प्रत्युत इनको अपनेमें स्वीकार ही नहीं करना है । वास्तवमें शरीरमें रहता हुआ भी स्वयं कभी कर्ता-भोक्ता बना
ही नहीं, कभी बनेगा ही नहीं, कभी बन सकता ही नहीं । गीतामें आया है‒ यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते
। हत्वापि सा इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥ (१८/१७) ‘जिसका अहंकृतभाव (मैं
कर्ता हूँ‒ऐसा भाव) नहीं है और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती, वह (युद्धमें) इन
सम्पूर्ण प्राणियोंको मारकर भी न मारता है और न बँधता है ।’
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