विचार करें, जब चौरासी लाख योनियोंमें कोई भी शरीर हमारे साथ नहीं रहा तो
फिर यह शरीर हमारे साथ कैसे रहेगा ? जब चौरासी लाख शरीर मैं-मेरे नहीं रहे तो फिर यह शरीर मैं-मेरा
कैसे रहेगा ? शरीर मेरा नहीं है अनन्त ब्रह्माण्डोंमें अनन्त वस्तुएँ हैं, पर उनमेंसे
तिनके-जितनी वस्तु भी हमारी नहीं है, फिर शरीर हमारा कैसे हुआ ? यह सिद्धान्त है कि जो वस्तु मिलती है और बिछुड़ जाती है, वह
अपनी नहीं होती । शरीर मिला है और बिछुड़ जायगा, इसलिये वह अपना नहीं है । अपनी
वस्तु वही हो सकती है, जो सदा हमारे साथ रहे और हम सदा उसके साथ रहें । यदि
शरीर अपना होता तो सदा हमारे साथ रहता और हम सदा इसके साथ रहते । परन्तु शरीर एक
क्षण भी हमारे साथ नहीं रहता और हम इसके साथ नहीं रहते । एक वस्तु अपनी होती है और एक वस्तु अपनी मानी हुई होती है ।
भगवान् अपने हैं; क्योंकि हम उन्हींके अंश हैं‒‘ममैवांशो
जीवलोके’ (गीता १५/७) । वे हमसे कभी बिछुड़ते ही नहीं । परन्तु शरीर अपना
नहीं है, प्रत्युत अपना माना हुआ है । जैसे नाटकमें कोई राजा बनता है, कोई रानी
बनती है, कोई सिपाही बनते हैं तो वे सब नाटक करनेके लिये माने हुए होते हैं, असली
नहीं होते । ऐसे ही शरीर संसारके व्यवहार (कर्तव्यपालन)-के लिये अपना माना हुआ है
। यह वास्तवमें अपना नहीं है । जो वास्तवमें अपना है, उस
परमात्माको भुला दिया और जो अपना नहीं है, उस शरीरको अपना मान लिया‒यह हमारी बहुत
बड़ी भूल है । शरीर चाहे स्थूल हो, चाहे सूक्ष्म हो, चाहे कारण हो, वह
सर्वथा प्रकृतिका है । उसको अपना मानकर ही हम संसारमें बँधे हैं । परमात्माका अंश होनेके नाते हम परमात्मासे अभिन्न हैं ।
प्रकृतिका अंश होनेके नाते शरीर प्रकृतिसे अभिन्न है । जो अपनेसे अभिन्न है, उसको
अपनेसे अलग मानना और जो अपनेसे भिन्न है, उसको अपना मानना सम्पूर्ण दोषोंका मूल है
। जो अपना नहीं है, उसको अपना माननेके कारण ही जो वास्तवमें अपना है, वह अपना नहीं
दीखता ।
यह हम सबका अनुभव है कि शरीरपर हमारा कोई वश (अधिकार) नहीं
चलता । हम अपनी इच्छाके अनुसार शरीरको बदल नहीं सकते, बूढ़ेसे जवान नहीं बना सकते,
रोगीसे निरोग नहीं बना सकते, कमजोरसे बलवान् नहीं बना सकते, मृत्युसे बचाकर अमर
नहीं बना सकते । हमारे न चाहते हुए भी, लाख प्रयत्न करनेपर भी शरीर बीमार हो जाता
है, कमजोर हो जाता है, बूढ़ा हो जाता है और मर भी जाता है । जिसपर अपना वश न चले, उसको अपना मान लेना मूर्खता ही है । |