स्वयं (अपना स्वरूप) सदा निष्क्रिय रहता है । जब कार्य
सामने आता है, तब कर्तृत्वाभिमानके कारण वह उस कार्यका कर्ता बन जाता है ।
स्वरूपसे तो वास्तवमें वह अकर्ता ही रहता है । जाग्रत्,
स्वप्न और सुषुप्ति‒तीनों अवस्थाओंमें वह ज्यों-का-त्यों रहता है, उसकी ओर लक्ष्य
रहना ही स्वरूपबोध है । एक बातपर आप विशेष ध्यान दें । हमारे अन्तःकरणकी शुद्धि होगी, तब तत्त्वको जानेंगे‒यह है भविष्यकी
आशा । तत्त्व भूत, भविष्य और वर्तमान‒तीनोंमें है और तीनोंसे अतीत है । ऐसा
कोई देश, काल, वस्तु, अवस्था, परिस्थिति आदि नहीं, जिसमें तत्त्व न हो । उस
तत्त्वमें देश, काल, वस्तु आदि कुछ नहीं है । जब ऐसी बात है तो बताओ कि किस देश,
काल, वस्तु, परिस्थिति आदिमें हम उसे नहीं जान सकते अथवा नहीं प्राप्त कर सकते ? न
हमारेमें करण है, न उसमें करण है फिर उसे जाननेमें देरी क्या ? करणके द्वारा उसे
जानना चाहो तो करणकी शुद्धि करनी पड़ेगी, और करणके द्वारा उस तत्त्वको जान सका हो, ऐसा आजतक कोई
हुआ नहीं । तत्त्वको जाननेकी जो वेदान्तकी प्रक्रिया है, उसमें पहले
विवेक, वैराग्य, समाधि, षट्सम्पत्ति और मुमुक्षा‒ये साधनचतुष्टय सम्पन्न होता है
। फिर श्रवण, मनन और निदिध्यासन‒ये तीन साधन करने पड़ते हैं । इसके बाद
तत्वपदार्थका संशोधन होता है । तत्त्वपदार्थ संशोधनके बाद सबीज समाधि होती है ।
यहाँतक अन्तःकरण (प्रकृति)-का साथ है ।
अन्तःकरणसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर निर्बीज समाधि होगी, तब
तत्त्व-साक्षात्कार होगा । यह
प्रक्रिया अन्तःकरणके द्वारा तत्त्वकी ओर जानेके लिये है । पर हम कहते हैं कि इतना सब करनेकी आवश्यकता नहीं,
तत्त्वमें अभी-अभी स्थिति हो सकती है । केवल उसको
प्राप्त करनेकी चाहना, उत्कण्ठामें कमी है, इसीलिये देरी हो रही है । मैं
तत्त्वप्राप्तिमें किसीको अयोग्य नहीं मानता हूँ, केवल उसे प्राप्त करनेकी
इच्छामें कमी मानता हूँ । इच्छामें कमी न हो तो तत्त्वको जान लेगा‒पक्की बात है । तत्त्व तो सदा ज्यों-का-त्यों है । उसे तत्काल जान सकते हैं
। केवल उधर दृष्टि नहीं है । इसे ऐसे समझें‒हम आँखसे सब पदार्थोंको देखते हैं, पर
पदार्थोंसे भी पहले हमें प्रकाश दिखायी देता है । पहले नम्बरमें प्रकाश और दूसरे
नम्बरमें सब पदार्थ दीखते हैं । कारण कि प्रकाशके अन्तर्गत ही सब कुछ दीखता है ।
पर लक्ष्य न होनेसे हमारी दृष्टि पहले प्रकाशपर नहीं जाती‒ जो ज्योतियोंका ज्योति है, सबसे प्रथम जो भासता । अव्यय सनातन दिव्य दीपक, सर्व विश्व प्रकाशता ॥ वह तत्त्व सबसे पहले दीखता है । उसीके अन्तर्गत सब कुछ है ।
वही सब करणोंको प्रकाशित करता है । उसीके द्वारा सब जाने जाते हैं । इसलिये आप लोगोंसे निवेदन है कि आप अपनेमें तत्त्वप्राप्तिकी अयोग्यता
न समझें । आपमें एक ही कमी मैं मानता हूँ, वह है कि इस तत्त्वको जाननेकी उत्कट
अभिलाषा नहीं है । तत्त्वप्राप्ति भविष्यकी बात है ही नहीं । जो वस्तु उत्पन्न
होनेवाली, क्रियाजन्य हो, जो दूर देशमें हो, जिसमें कुछ परिवर्तन करना हो, उसकी
प्राप्तिमें तो भविष्यकी अपेक्षा है । परन्तु तत्त्व
स्वतःसिद्ध एवं सब देश, कालादिमें परिपूर्ण है । उसे प्राप्त करनेमें भविष्य कैसा
? सब देश, काल, वस्तु, अवस्था, परिस्थिति आदिमें आपकी स्वतःसिद्ध सत्ता है
। वह अखण्ड सत्ता है । उसका अनुभव करनेके लिये सभी योग्य
हैं, सभी अधिकारी हैं । नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे |