।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                                         




           आजकी शुभ तिथि–
माघ कृष्ण षष्ठी वि.सं.२०७७, बुधवा

तत्त्वप्राप्तिमें सभी योग्य हैं


स्वयं (अपना स्वरूप) सदा निष्क्रिय रहता है । जब कार्य सामने आता है, तब कर्तृत्वाभिमानके कारण वह उस कार्यका कर्ता बन जाता है । स्वरूपसे तो वास्तवमें वह अकर्ता ही रहता है । जाग्रत्‌, स्वप्न और सुषुप्ति‒तीनों अवस्थाओंमें वह ज्यों-का-त्यों रहता है, उसकी ओर लक्ष्य रहना ही स्वरूपबोध है ।

एक बातपर आप विशेष ध्यान दें । हमारे अन्तःकरणकी शुद्धि होगी, तब तत्त्वको जानेंगे‒यह है भविष्यकी आशा । तत्त्व भूत, भविष्य और वर्तमान‒तीनोंमें है और तीनोंसे अतीत है । ऐसा कोई देश, काल, वस्तु, अवस्था, परिस्थिति आदि नहीं, जिसमें तत्त्व न हो । उस तत्त्वमें देश, काल, वस्तु आदि कुछ नहीं है । जब ऐसी बात है तो बताओ कि किस देश, काल, वस्तु, परिस्थिति आदिमें हम उसे नहीं जान सकते अथवा नहीं प्राप्त कर सकते ? न हमारेमें करण है, न उसमें करण है फिर उसे जाननेमें देरी क्या ? करणके द्वारा उसे जानना चाहो तो करणकी शुद्धि करनी पड़ेगी, और करणके द्वारा उस तत्त्वको जान सका हो, ऐसा आजतक कोई हुआ नहीं ।

तत्त्वको जाननेकी जो वेदान्तकी प्रक्रिया है, उसमें पहले विवेक, वैराग्य, समाधि, षट्‌सम्पत्ति और मुमुक्षा‒ये साधनचतुष्टय सम्पन्न होता है । फिर श्रवण, मनन और निदिध्यासन‒ये तीन साधन करने पड़ते हैं । इसके बाद तत्वपदार्थका संशोधन होता है । तत्त्वपदार्थ संशोधनके बाद सबीज समाधि होती है । यहाँतक अन्तःकरण (प्रकृति)-का साथ है । अन्तःकरणसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर निर्बीज समाधि होगी, तब तत्त्व-साक्षात्कार होगा । यह प्रक्रिया अन्तःकरणके द्वारा तत्त्वकी ओर जानेके लिये है । पर हम कहते हैं कि इतना सब करनेकी आवश्यकता नहीं, तत्त्वमें अभी-अभी स्थिति हो सकती है । केवल उसको प्राप्त करनेकी चाहना, उत्कण्ठामें कमी है, इसीलिये देरी हो रही है । मैं तत्त्वप्राप्तिमें किसीको अयोग्य नहीं मानता हूँ, केवल उसे प्राप्त करनेकी इच्छामें कमी मानता हूँ । इच्छामें कमी न हो तो तत्त्वको जान लेगा‒पक्‍की बात है ।

तत्त्व तो सदा ज्यों-का-त्यों है । उसे तत्काल जान सकते हैं । केवल उधर दृष्टि नहीं है । इसे ऐसे समझें‒हम आँखसे सब पदार्थोंको देखते हैं, पर पदार्थोंसे भी पहले हमें प्रकाश दिखायी देता है । पहले नम्बरमें प्रकाश और दूसरे नम्बरमें सब पदार्थ दीखते हैं । कारण कि प्रकाशके अन्तर्गत ही सब कुछ दीखता है । पर लक्ष्य न होनेसे हमारी दृष्टि पहले प्रकाशपर नहीं जाती‒

जो ज्योतियोंका ज्योति है, सबसे प्रथम जो भासता ।

अव्यय सनातन दिव्य दीपक,    सर्व विश्व प्रकाशता ॥

वह तत्त्व सबसे पहले दीखता है । उसीके अन्तर्गत सब कुछ है । वही सब करणोंको प्रकाशित करता है । उसीके द्वारा सब जाने जाते हैं । इसलिये आप लोगोंसे निवेदन है कि आप अपनेमें तत्त्वप्राप्तिकी अयोग्यता न समझें । आपमें एक ही कमी मैं मानता हूँ, वह है कि इस तत्त्वको जाननेकी उत्कट अभिलाषा नहीं है ।

तत्त्वप्राप्ति भविष्यकी बात है ही नहीं । जो वस्तु उत्पन्न होनेवाली, क्रियाजन्य हो, जो दूर देशमें हो, जिसमें कुछ परिवर्तन करना हो, उसकी प्राप्तिमें तो भविष्यकी अपेक्षा है । परन्तु तत्त्व स्वतःसिद्ध एवं सब देश, कालादिमें परिपूर्ण है । उसे प्राप्त करनेमें भविष्य कैसा ? सब देश, काल, वस्तु, अवस्था, परिस्थिति आदिमें आपकी स्वतःसिद्ध सत्ता है । वह अखण्ड सत्ता है । उसका अनुभव करनेके लिये सभी योग्य हैं, सभी अधिकारी हैं ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे