एक बार ब्राह्मणको कई दिनोंसे अन्न नहीं मिला । एक दिन जौके
खेतमें कुछ जौ मिले । ब्राह्मणने लाकर घरमें दे दिए । सास-बहूने उनका आटा बनाया और
भूनकर सतुआ तैयार किया । राजस्थानमें घी-चीनी डालकर जो सत्तू बनाया जाता है, वह
नहीं । केवल आटा भुना हुआ सतुआ तैयार किया । चारों प्राणी कई दिनके भूखे थे ।
उन्होंने उस सतुआके पाँच विभाग किये । जब रसोई बनती है तब उसको पूरी-की-पूरी स्वयं खा लेना पाप है
। जो केवल अपने लिये भोजन पकाकर खाते हैं, वे पापी पापका भक्षण करते हैं‒‘भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्’ (गीता ३/१३) ।
मनुजीने भी कहा है‒‘केवलाघी भवति केवलादी’ जो अपने
लिये भोजन बनाता है, वह पापका भक्षण करता है । रसोई बनी तो अतिथि-सत्कार करना
गृहस्थका धर्म है । भगवान्ने ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी, संन्यासी‒सबका
पालन-पोषण करनेकी जिम्मेवारी गृहस्थपर रखी है । इसलिये कोई घरपर आ जाय तो
कुछ दे दो । पेटभर खिलाना ही है‒ऐसा कोई नियम नहीं है; परन्तु कुछ दो । लौकिक कहावत है‒हाथका उत्तर दो, जबानका उत्तर मत दो । ब्राह्मणने बलिवैश्वदेव कर दिया, भगवान्को भोग लगा दिया,
फिर पाँच पत्तलोंमें परोस करके बाहर जाकर अतिथिको देखने लगे । रसोई बनकर तैयार हो जाय तो बलिवैश्वदेव करके जितनी देरमें एक
गाय दुहे, उतनी देर अतिथिकी प्रतीक्षा करनी चाहिये । अतिथि न आये तो उसका हिस्सा
निकालकर भोजन कर सकते हैं । अगर भोजनसे पहले अतिथि आ जाय तो अतिथिको भोजन देकर फिर
स्वयं भोजन करना चाहिये । इतनेमें ही एक ब्राह्मण आ गये । उनको भिक्षाके
लिये कहा तो वे आ गये । उनको भीतर ले गये और
अतिथिके लिये रखा हुआ सतुआ दे दिया । उसको वे पा गये । घरके ब्राह्मण
देवाताने उनको अपने हिस्सेका सतुआ दे दिया । अतिथि ब्राह्मण वह भी पा गये ।
ब्राह्मणीने जाकर अपने पतिदेवसे कहा कि प्राणनाथ ! अभीतक अतिथिकी तृप्ति नहीं हुई
है, उसको मेरा भी हिस्सा दे दो । ब्राह्मणने उसको समझाया कि देखो, तुम स्त्री जाति
हो, भूख अधिक लगती है । तुम भूख सहन नहीं कर सकोगी । जब हमने अतिथिका सत्कार कर
दिया तो गृहस्थके धर्मका पालन हो गया । तुम कोई
चिन्ता मत करो । ब्राह्मणीने कहा कि आप भूखे रहें और मैं खाऊँ‒ऐसा कभी हो
नहीं सकता । ब्राह्मणीने ज्यादा हठ किया तो उसका हिस्सा भी अतिथिको दे दिया । वे
उसे भी पा गये । अब बेटा पहुँचा पिताजीके पास । दान-पुण्य
करना, श्राद्ध आदि करना परिवारके बड़े (मुख्य) व्यक्तिका काम होता है ।
इसलिये लड़केने अतिथिको अपना हिस्सा खुद न परोसकर पिताजीसे प्रार्थना की । पिताजी
(ब्राह्मण)-ने कहा कि देखो बेटा ! तेरी अवस्था छोटी है । छोटी अवस्थामें अग्नि तेज
होती है, भूख ज्यादा लगती है । इसलिये तुम खाओ । हम तो बूढ़े हैं, हमारी कोई बात नहीं
। बेटा माना नहीं । उसने बहुत हठ किया तो उसका हिस्सा भी अतिथिको परोस दिया । अब
बेटेकी बहू पहुँची अपनी सासके पास और बोली कि माताजी ! मेरा भाग भी अतिथिको दे
दीजिये, जिससे वे तृप्त हो जायँ । हम कई
दिनोंसे भूखे हैं, एक दिन और भूखे रह जायँ तो क्या है ! बहुत हठ करनेपर उसका
हिस्सा भी अतिथिको दे दिया । अतिथिको देकर चारों प्राणी बहुत प्रसन्न हुए कि आज तो
बड़े आनन्दकी बात हो गयी !
यदि कोई दान देकर पछताता है, दुःखी हो जाता है,
तो वह दान उतना फलीभूत नहीं होता । देकर प्रसन्न हो जाय कि आज हम निहाल हो गये ! अपना पेट भरा रहनेपर अन्न देना
सुगम है । लाखों, करोड़ों रुपये रहनेपर थोड़े रुपये देना सुगम है । परन्तु भूखे पेट
अन्न देना मामूली बात नहीं, बड़ा मुश्किल काम हैं । आपने सुन लिया, हमने कह दिया,
जोर क्या आया ? पता तब लगे जब ऐसा काम पड़े । वे चारों प्राणी देकर बहुत प्रसन्न
हुए कि आज तो हम निहाल हो गये ! वे अतिथि ब्राह्मण धर्मराजरूपसे प्रकट हो गये और
बोले कि तुम कितने धर्मात्मा हो‒इसकी मैंने परीक्षा ली थी । आज मैं हार गया, तुम
जीत गये ! तुमने धर्मपर विजय प्राप्त कर ली । अब तुम स्वर्गमें चलो । वे सब
धर्मराजके साथ चले गये । वह नेवला कहता है कि मैंने यह सब देखा ! पत्तलके ऊपर
आचमनका पानी बिखरा था । वहाँ जाकर जब मैंने लोट लगायी तो शरीरके जितने भागमें वह
पानी लगा, उतना भाग सोनेका हो गया । बाकीका
भाग भीगा नहीं, इसलिये पूरा शरीर सोनेका नहीं हुआ । मैंने इस यज्ञकी महिमा सुनी कि
युधिष्ठिरजी महाराजने बड़ा भारी यज्ञ किया है । यहाँ आकर मैं कीचड़में लोटा तो कीचड़ और लग गया, रोयाँ (रूआँ) एक भी सोनेका नहीं हुआ
! आप इस यज्ञकी झूठी प्रशंसा क्यों
करते हो ? |