वास्तवमें कल्याण, मुक्ति, तत्त्वज्ञान, परमात्मप्राप्ति
गुरुके अधीन नहीं है । अगर बिना गुरु बनाये तत्त्वज्ञान नहीं होता तो सृष्टिमें जो सबसे पहला
गुरु रहा होगा, उसको तत्त्वज्ञान कैसे हुआ होगा ?
अगर बिना किसी मनुष्यको गुरु बनाये उसको तत्त्वज्ञान हो गया तो इससे सिद्ध
हुआ कि बिना किसी मनुष्यको गुरु बनाये भी जगद्गुरु भगवान्की कृपासे तत्त्वज्ञान
हो सकता है । परन्तु आजकल तो ऐसी प्रथा चल रही है कि
पहले चेला बनो, गुरुमन्त्र लो, पीछे उपदेश देंगे । ऐसी दशामें गुरु बनानेपर चेलेकी
बड़ी दुर्दशा होती है । भाव बैठता नहीं, लाभ दीखता नहीं, भीतरका भ्रम भी
मिटता नहीं और छोड़कर दूसरी जगह जा सकते नहीं । मेरेसे
कोई सम्मति ले तो मैं कहूँगा कि सत्संग करो और जितना ले सको, उतना लाभ लो, पर
किसीको गुरु मत बनाओ । जहाँ-जहाँसे अच्छी बातें मिलें, वहाँ-वहाँसे उनको लेते रहो
और जहाँ अच्छी बात न मिले, वहाँसे चल दो । गुरु बनाकर बँधो मत । मधुलुब्धो यथा भृङ्गः पुष्पात् पुष्पन्तरं व्रजेत् । ज्ञानलुब्धस्तथा शिष्यो
गुरोर्गुर्वन्तरं व्रजेत् ॥ (गुरुगीता) ‘मधुका लोभी भ्रमर जैसे एक पुष्पसे दूसरे पुष्पकी
ओर जाता है, ऐसे ही ज्ञानका लोभी शिष्य एक गुरुसे दूसरे गुरुकी ओर जाय ।’ गुरु बनानेके बाद आगे जाकर न जाने क्या दशा होगी ! मेरेसे
ऐसे कई आदमी मिले हैं, जिन्होंने अपनी दृष्टिसे अच्छे-से-अच्छे गुरु बनाये, पर
पीछे उनपर अश्रद्धा हो गयी । अतः जो अपना कल्याण चाहता
है, उसको किसीसे भी सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिये । संसारसे सम्बन्ध जोड़नेवाला अपना
ही कल्याण नहीं कर सकता, फिर दूसरेका कल्याण कैसे करेगा ? आजकल असली गुरु
मिलना बहुत कठिन है । जो ठीक तत्त्वको जाननेवाला हो, ऐसा देखनेमें नहीं आता । जो स्वयं तत्वको नहीं जानता, वह शिष्यको क्या
बतायेगा ? ठीक तत्त्वको जाननेवाले गुरु पहले भी बहुत कम हुए हैं । पहले हो
चुके सन्तोंकी पुस्तकें पढ़ते हैं तो उनसे भी हमें पूरा सन्तोष नहीं होता । सबसे बढ़कर सन्त वे होते हैं, जिनमें मतभेद नहीं होता अर्थात्
द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि किसी एक मतका आग्रह नहीं होता । इसलिये साधकके
लिए सबसे बढ़िया बात यही है कि वह सच्चे हृदयसे भगवान्में लग जाय । किसी व्यक्तिको
न पकड़कर परमात्माको पकड़े । व्यक्तिमें पूर्णता नहीं होती । पूर्णता
परमात्मामें होती है । हम सच्चे हृदयसे परमात्माके सम्मुख हो जायँ तो वे योग, ज्ञान, भक्ति ‒सब
कुछ दे देते हैं[*] । नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
[*] तेषं सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम: । नाशयात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥ (गीता १०। १०-११) ‘उन नित्य-निरन्तर
मुझमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करनेवाले भक्तोंको मैं बुद्धयोग देता हूँ,
जिससे उनको मेरी प्राप्ति हो जाती है ।’ ‘उन भक्तोंपर कृपा
करनेके लिये उनके स्वरूप (होनेपन)-में रहनेवाला मैं उनके अज्ञानजन्य अंधकारको
देदीप्यमान ज्ञानरूपी दीपकके द्वारा नष्ट कर देता हूँ ।’ |