।। श्रीहरिः ।।

                


आजकी शुभ तिथि–
       चैत्र शुक्ल दशमी, वि.सं.२०७८ गुरुवार

सच्चे गुरुकी दुर्लभता


वास्तवमें कल्याण, मुक्ति, तत्त्वज्ञान, परमात्मप्राप्ति गुरुके अधीन नहीं है । अगर बिना गुरु बनाये तत्त्वज्ञान नहीं होता तो सृष्टिमें जो सबसे पहला गुरु रहा होगा, उसको तत्त्वज्ञान कैसे हुआ होगा ? अगर बिना किसी मनुष्यको गुरु बनाये उसको तत्त्वज्ञान हो गया तो इससे सिद्ध हुआ कि बिना किसी मनुष्यको गुरु बनाये भी जगद्गुरु भगवान्‌की कृपासे तत्त्वज्ञान हो सकता है । परन्तु आजकल तो ऐसी प्रथा चल रही है कि पहले चेला बनो, गुरुमन्त्र लो, पीछे उपदेश देंगे । ऐसी दशामें गुरु बनानेपर चेलेकी बड़ी दुर्दशा होती है । भाव बैठता नहीं, लाभ दीखता नहीं, भीतरका भ्रम भी मिटता नहीं और छोड़कर दूसरी जगह जा सकते नहीं । मेरेसे कोई सम्मति ले तो मैं कहूँगा कि सत्संग करो और जितना ले सको, उतना लाभ लो, पर किसीको गुरु मत बनाओ । जहाँ-जहाँसे अच्छी बातें मिलें, वहाँ-वहाँसे उनको लेते रहो और जहाँ अच्छी बात न मिले, वहाँसे चल दो । गुरु बनाकर बँधो मत ।

मधुलुब्धो यथा भृङ्गः पुष्पात् पुष्पन्तरं व्रजेत् ।

ज्ञानलुब्धस्तथा शिष्यो    गुरोर्गुर्वन्तरं  व्रजेत् ॥

(गुरुगीता)

‘मधुका लोभी भ्रमर जैसे एक पुष्पसे दूसरे पुष्पकी ओर जाता है, ऐसे ही ज्ञानका लोभी शिष्य एक गुरुसे दूसरे गुरुकी ओर जाय ।’

गुरु बनानेके बाद आगे जाकर न जाने क्या दशा होगी ! मेरेसे ऐसे कई आदमी मिले हैं, जिन्होंने अपनी दृष्टिसे अच्छे-से-अच्छे गुरु बनाये, पर पीछे उनपर अश्रद्धा हो गयी । अतः जो अपना कल्याण चाहता है, उसको किसीसे भी सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिये । संसारसे सम्बन्ध जोड़नेवाला अपना ही कल्याण नहीं कर सकता, फिर दूसरेका कल्याण कैसे करेगा ? आजकल असली गुरु मिलना बहुत कठिन है । जो ठीक तत्त्वको जाननेवाला हो, ऐसा देखनेमें नहीं आता । जो स्वयं तत्वको नहीं जानता, वह शिष्यको क्या बतायेगा ? ठीक तत्त्वको जाननेवाले गुरु पहले भी बहुत कम हुए हैं । पहले हो चुके सन्तोंकी पुस्तकें पढ़ते हैं तो उनसे भी हमें पूरा सन्तोष नहीं होता । सबसे बढ़कर सन्त वे होते हैं, जिनमें मतभेद नहीं होता अर्थात् द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि किसी एक मतका आग्रह नहीं होता । इसलिये साधकके लिए सबसे बढ़िया बात यही है कि वह सच्चे हृदयसे भगवान्‌में लग जाय । किसी व्यक्तिको न पकड़कर परमात्माको पकड़े । व्यक्तिमें पूर्णता नहीं होती । पूर्णता परमात्मामें होती है । हम सच्चे हृदयसे परमात्माके सम्मुख हो जायँ तो वे योग, ज्ञान, भक्ति ‒सब कुछ दे देते हैं[*]

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!



[*] तेषं सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।

   ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते

   तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम: ।

   नाशयात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता (गीता १०। १०-११)

‘उन नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करनेवाले भक्तोंको मैं बुद्धयोग देता हूँ, जिससे उनको मेरी प्राप्ति हो जाती है ।’

‘उन भक्तोंपर कृपा करनेके लिये उनके स्वरूप (होनेपन)-में रहनेवाला मैं उनके अज्ञानजन्य अंधकारको देदीप्यमान ज्ञानरूपी दीपकके द्वारा नष्ट कर देता हूँ ।’