पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहम्‒ये सब
‘अपरा प्रकृति’ हैं और जीवरूपसे बने हुए हम ‘परा प्रकृति’ हैं । हमारा सम्बन्ध
परमात्माके साथ है, शरीरके साथ नहीं । शरीर अपरा प्रकृति है । मैं (अहम्) और
मेरा‒दोनोंका सम्बन्ध संसारके साथ है । इस प्रकार निर्मम और निरहंकार होते ही
तत्काल शान्ति मिल जायगी‒‘निर्ममो निरहंकारः स
शान्तिमधिगच्छति’ (गीता २/७१) । हमारा कुछ नहीं है । ममता भी हमारी नहीं है
और अहंकार भी हमारा नहीं है । कामना भी हमारी नहीं है और स्पृहा भी हमारी नहीं है
। इसको गीताने ब्राह्मी स्थिति कहा है‒‘एषा ब्राह्मी
स्थितिः’ (गीता २/७२) । इसलिये केवल यह स्वीकार
कर लें कि हम परमात्माके हैं, शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं
है तो अभी-अभी मुक्त हो जायँगे ! इसमें पाप-पुण्यका कायदा नहीं है । यह
भावना ही उठा दें कि हम पापी हैं । हमारेमें
पाप-ताप कुछ नहीं हैं । हम साक्षात् परमात्माके अंश हैं । पाप आगन्तुक हैं
और किये हुए हैं, स्वाभाविक नहीं हैं । परन्तु हम स्वाभाविक ‘चेतन अमल सहज सुखरासी’ हैं‒इतना ही हमें जानना है । पाप
पैदा और नष्ट होनेवाली वस्तु है । हम पैदा और नष्ट होनेवाली वस्तु नहीं हैं । हम सदा परमात्माके साथ हैं और परमात्मा सदा हमारे साथ हैं ।
हम पापी हैं तो परमात्माके साथ हैं, पुण्यात्मा हैं तो परमात्माके साथ हैं । हम
अच्छें हैं तो परमात्माके साथ हैं, मन्दे हैं तो परमात्माके साथ हैं । हमारेमें न पाप है, न पुण्य । न अच्छा है, न मन्दा । अभी हमें
अनुभव न हो तो भी हम परमात्माके साथ ही हैं । कितना ही बड़ा पापी हो, रोजाना
जानवरोंको काटनेवाला कसाई हो, तो भी है वह परमात्माका अंश ही ! हम साक्षात् परमात्माके अंश हैं, पाप-पुण्य हमें छूते ही नहीं,
हमतक पहुँचते ही नहीं । इस बातको हम ठीक समझ लें तो इतनेसे मुक्ति हो जायगी । शरीर तो संसारका है और जन्मता-मरता रहता है, पर हम वही रहते
हैं‒‘भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’ (गीता
८/१९) । संसारके साथ शरीरकी एकता है, हमारी बिलकुल नहीं । समस्त पाप-ताप
शरीरके साथ हैं, हमारे साथ नहीं । हम सम्पूर्ण पाप-पुण्योंसे, शुभ-अशुभ कर्मोंसे
अलहदा हैं । बस, इतनी बात मान लें । हम केवल परमात्माके
हैं‒यह एकदम सच्ची बात है । इसको माननेमात्रसे मुक्ति हो जायगी; क्योंकि मान्यतासे
ही बन्धन होता है और मान्यतासे ही मुक्ति होती है । हम भगवान्के हैं‒इस बातको अगर हम भूल जायँ तो भी यह बात वैसी-की-वैसी ही
रहेगी । कारण कि भूलना अथवा न भूलना हमारी बुद्धिमें हैं, हमारेमें नहीं । हमारा
सम्बन्ध न भूलके साथ है, न यादके साथ है । हम तो वैसे-के-वैसे ही ‘चेतन अमल सहज सुखरासी’ हैं । हमारेमें क्या भूलना और
क्या याद करना ? हम चेतन हैं और सत्त्व-रज-तम तीनों गुण जड़ हैं । हम इन गुणोंके साथ सम्बन्ध जोड़ते हैं, तभी ये गुण हमें बाँधते
हैं । अगर हम गुणोंको न पकड़ें तो ये कुछ नहीं करेंगे । हम स्वयं चेतन तथा असंग होते हुए भी जड़को पकड़ लेते हैं, तभी फँसते
हैं । हम न पकड़ें तो गुण प्रकृतिमें ही रहेंगे‒‘प्रकृतिस्थानि’,
हमारे पास नहीं आयेंगे । इसमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है । अगर हम गुणोंका
साथ न दें तो ये हमारा बाल बाँका नहीं कर सकते । इनमें ताकत ही नहीं है । हमारे लाखों जन्मोंके
कैसे ही कर्म हों, सब प्रभुको अपना मानते ही नष्ट हो जाते हैं‒ सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं । जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥ (मानस, सुन्दरकाण्ड ४४/१) |