अगर संसारका असर पड़ जाय तो परवाह मत करो, उसको स्वीकार मत
करो, फिर वह मिट जायगा । असरको महत्त्व देकर आप बड़े भारी
लाभसे वंचित हो रहे हो । इसलिये असर पड़ता है तो पड़ने दो, पर मनमें समझो कि यह
सच्ची बात नहीं है । झूठी चीजका असर भी झूठा ही होगा, सच्चा कैसे होगा ?
आपसे कोई पैसा ठगता है तो आपको उसकी बात ठीक दीखती है, आप उससे मोहित हो जाते हो,
तभी तो ठगाईमें आते हो । ऐसे ही संसारका असर पड़ना बिलकुल
ठगाई है, मूर्खता है । एक
मार्मिक बात है कि असर शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिपर पड़ता है, आपपर नहीं । जिस
जातिकी वस्तु है, उसी जातिपर उसका असर पड़ता है, आपपर नहीं पड़ता, क्योंकि आपकी जाति अलग है । शरीर-संसार जड़ हैं, आप चेतन
हो । जड़का असर चेतनपर कैसे पड़ेगा ? जड़का असर तो जड़ (शरीर) पर ही पड़ेगा । यह सच्ची
बात है । इसको
अभी मान लो तो अभी काम हो गया ! आँखोंके कारण देखनेका असर पड़ता है ।
कानोंके कारण सुननेका असर पड़ता है । तात्पर्य है कि असर
सजातीय वस्तुपर पड़ता है । अतः कितना ही असर पड़े, उसको आप सच्चा मत मानो ।
आपके स्वरूपपर असर नहीं पड़ता । स्वरूप बिलकुल निर्लेप है–‘असंगो
ह्ययं पुरुषः’ (बृहदारण्यक ४।३।१५) । मन-बुद्धि़पर
असर पड़ता है तो पड़ता रहे । मन-बुद्धि हमारे नहीं हैं । ये उसी धातुके हैं, जिस
धातुकी वस्तुका असर पड़ता है । प्रश्न–फिर
सुखी दुःखी स्वयं क्यों होता है ? उत्तर–मन-बुद्धिको अपना
माननेसे ही स्वयं सुखी-दुःखी होता है । मन-बुद्धि अपने नहीं हैं, प्रत्युत
प्रकृतिके अंश हैं । आप परमात्माके अंश हो । मन-बुद्धिपर असर पड़नेसे आप सुखी-दुःखी हो जाते हो तो यह
गलतीकी बात है । वास्तवमें आप सुखी-दुःखी नहीं होते, प्रत्युत ज्यों-के-त्यों रहते
हो । विचार करें, अगर आपके ऊपर सुख-दुःखका असर पड़ जाय तो आप अपरिवर्तनशील और एकरस
नहीं रहेंगे । आपपर असर पड़ता नहीं है, प्रत्युत आप
अपनेपर असर मान लेते हैं । कारण कि आपने मन-बुद्धिको अपने मान रखा है, जो आपके कभी
नहीं हैं, कभी नहीं हैं । मन-बुद्धि प्रकृतिके हैं और प्रकृतिका असर
प्रकृतिपर ही पड़ेगा । प्रश्न–असर
पड़नेपर वैसा कर्म हो जाय तो ?
उत्तर–कर्म भी हो जाय तो भी आपमें
क्या फर्क पड़ा ? आप विचार
करके देखो तो आपपर असर नहीं पड़ा । परन्तु मुश्किल यह है
कि आप उसके साथ मिल जाते हो । आप मन-बुद्धिको अपना स्वरूप मानकर ही कहते हो कि
हमारेपर असर पड़ा । मन-बुद्धि आपके नहीं हैं, प्रत्युत प्रकृतिके हैं–‘मनःषष्ठानीनिन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति’ (गीता १५।७)
और आप मन-बुद्धिके नहीं हो, प्रत्युत परमात्माके हो–‘ममैवांशो
जीवलोके’ (गीता १५।७) । इसलिये असर मन-बुद्धिपर पड़ता है, आपपर नहीं । आप तो
वैसे-के-वैसे ही रहते हो–‘समदुःखसुखः स्वस्थः’ (गीता
१४।२४) । प्रकृतिमें स्थित पुरुष ही सुख-दुःखका भोक्ता बनता है–‘पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्’ (गीता १३।२१)
। मन-बुद्धि़पर असर पड़ता है तो पड़ता रहे, अपनेको क्या मतलब है ! असरको
महत्त्व मत दो । इसको अपनेमें स्वीकार मत करो । आप ‘स्व’ में स्थित हैं–‘स्वस्थः
।’ असर ‘स्व’ में पहुँचता ही नहीं । असत्
वस्तु सत्में कैसे पहुँचेगी ? और सत् वस्तु
असत्में कैसे पहुँचेगी ? सत् तो निर्लेप रहता है । |