।। श्रीहरिः ।।

                                                                                      


आजकी शुभ तिथि–
     आषाढ़ कृष्ण सप्तमी, वि.सं.२०७८ गुरुवार

                 तू-ही-तू

प्रकृति और प्रकृतिवाला (शक्ति और शक्तिमान्‌‌ ) एक होते हुए भी दो हैं और दो होते हुए भी एक हैं । एक ही अनेकरूपसे दीखता है और अनेकरूपसे दीखते हुए भी वह एक है । भगवान्‌ कहते हैं‒

मनसा वचसा दृष्ट्या गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रियैः ।

अहमेव  न  मत्तोऽन्यदिति बुध्यध्वमञ्जसा ॥

(श्रीमद्भा ११/१३/२४)

‘मनसे, वाणीसे, दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियोंसे जो कुछ (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि) ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ । अतः मेरे सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है‒यह सिद्धान्त आप विचारपूर्वक शीध्र समझ लें अर्थात्‌ स्वीकार कर लें ।’

आत्मैव तदिदं विश्वं   सृज्यते सृजति प्रभुः ।

त्रायते त्राति विश्वात्मा ह्रियते हरतीश्वरः ॥

(श्रीमद्भा ११/१३/२४)

‘जो कुछ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष वस्तु है, वह सर्वशक्तिमान्‌‌ परमात्मा ही हैं । वे परमात्मा ही विश्व बनाते हैं और वे ही विश्व बनते हैं । वे ही विश्वके रक्षक हैं और वे ही रक्षित हैं । वे ही सर्वात्मा भगवान्‌ विश्वका संहार करते हैं और जिसका संहार होता है, वह विश्व भी वे ही हैं ।’

तैत्तेरीयोपनिषद्‌में आया है‒

अहमन्नमहमन्नमहमन्नम् । अहमन्नादोऽहमन्नादः ।

(३/१०/६)

‘अन्न भी मैं ही हूँ और अन्नको खानेवाला भी मैं ही हूँ ।’

संसारको सत्ता देकर उसको अपना मानने और उसकी आवश्यकताका अनुभव करनेसे मनुष्यको परमात्मासे दूरी, भेद और भिन्नता दीखती है । इसलिये साधकको चाहिये कि वह भगवान्‌को अपना माने और उनकी आवश्यकताका अनुभव करे । इन दो बातोंका पालन करनेसे ही साधकका संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा और परमात्मासे समीपता, अभेद तथा अभिन्नताका अनुभव हो जायगा । तात्पर्य यह हुआ कि साधक जबतक परमात्माके सिवाय अन्य कुछ भी सत्ता मानता है, तबतक उसकी परमात्मासे दूरी, भेद तथा भिन्नता बनी रहती है । एक परमात्माके सिवाय कुछ नहीं है‒इस वास्तविकताका अनुभव होनेपर दूरी, भेद तथा भिन्नता मिट जाती है और साधक साध्यमें लीन हो जाता है ।