।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                      


आजकी शुभ तिथि–
    श्रावण कृष्ण नवमी, वि.सं.२०७८ सोमवार

मैंपनसे रहित स्वरूपका अनुभव

जब कोई कर्ता-भोक्ता नहीं रहता, तब ‘योग’ रहता है । योग होनेपर भोग नहीं रहता अर्थात्‌ ‘योग’ तो रहता है, पर योगी नहीं रहता, ‘ज्ञान’ तो रहता है, पर ज्ञानी नहीं रहता, ‘प्रेम’ तो रहता है, पर प्रेमी नहीं रहता । जबतक योगी रहता है, तबतक योगका भोग होता है । जबतक प्रेमी रहता है, तबतक प्रेमका भोग होता है । अतः जो योगी है, वह योगका भोगी है । जो ज्ञानी है, वह ज्ञानका भोगी है । जो प्रेमी है, वह प्रेमका भोगी है । जो योगका भोगी है, वह कभी विषयोंका भोगी भी हो सकता है । जो ज्ञानका भोगी है, वह कभी अज्ञानका भोगी भी हो सकता है । जो प्रेमका भोगी है, वह कभी काम (राग)-का भोगी भी हो सकता है ।

जब भोगी नहीं रहता, तब केवल योग रहता है । योग रहनेपर मनुष्य मुक्त हो जाता है । परन्तु मुक्त होनेपर भी महापुरुष जिस साधनसे मुक्ति प्राप्त की है, उस साधनका एक संस्कार रह जाता है, जो दूसरे दार्शनिकोंके साथ एकता नहीं होने देता । इस संस्कारके कारण ही दार्शनिकोंमें और उनके दर्शनोंमें मतभेद रहता है । अपने मतका संस्कार दूसरे दार्शनिकोंके मतोंका समान आदर नहीं करने देता । परन्तु प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति होनेपर अपने मतका संस्कार भी नहीं रहता और सबके साथ एकता हो जाती है । इसलिये रामायणमें आया है‒

प्रेम भगति जल बिनु रघुराई ।

अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥

(मानस, उत्तर४९/३)

अतः कर्मयोग तथा ज्ञानयोग तो साधन हैं, पर भक्तियोग साध्य है । प्रेममें अपने मतके संस्कारका भी सर्वथा अभाव हो जानेसे सम्पूर्ण मतभेद मिट जाते हैं और ‘वासुदेवः सर्वम्’ अर्थात्‌ सब कुछ परमात्मा ही हैं‒इसका अनुभव हो जाता है । वास्तवमें ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव करनेवाला, इसको जाननेवाला, कहनेवाला भी नहीं रहता, प्रत्युत एक वासुदेव ही रहता है, जो अनादिकालसे ज्यों-का-त्यों है । सबमें परमात्माको देखनेसे सम्पूर्ण मतोंमें समान आदरभाव हो जाता है; क्योंकि अपने इष्ट परमात्मासे विरोध सम्भव ही नहीं है‒‘निज प्रभुमय देखहिं जगत्‌ केहि सन करहिं बिरोध’ (मानस, उत्तर ११२ ख) । इसलिये गीतामें ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव करनेवाले महात्माको अत्यन्त दुर्लभ बताया है—

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥

(७/१९)

‘बहुत जन्मोंके अन्तमें अर्थात्‌ मनुष्यजन्ममें ‘सब कुछ वासुदेव ही है’‒ऐसा जो ज्ञानवान् मेरे शरण होता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है ।’

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे