।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                        


आजकी शुभ तिथि–
    श्रावण कृष्ण एकादशी, वि.सं.२०७८ बुधवार

     अक्रियतासे परमात्मप्राप्ति

उपराम होनेका तात्पर्य है कि राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि द्वन्द्व न हों । जैसे रास्तेमें चल रहे हैं तो कहीं पत्थर पड़ा है, कहीं लकड़ी पड़ी है, कहीं कागज पड़ा है, पर अपना उससे कोई मतलब नहीं होता, ऐसे ही किसी भी क्रिया और पदार्थसे अपना कोई मतलब नहीं रहे‒‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’ (गीता ३/१८) । उनसे तटस्थ रहे । तटस्थ रहना भी एक विद्या है । साधक तटस्थ रहते हुए सब काम करे तो वह संसारसे असंग हो जाता है । संसारमें लाभ हो, हानि हो, आदर हो, निरादर हो, सुख हो, दुःख हो, प्रशंसा हो, निन्दा हो, उसमें तटस्थ रहे तो परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है । अगर वह उसमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख कर लेगा तो भोग होगा, योग नहीं । भोगीका कल्याण नहीं होता । इसलिये तुलसीदासजी महाराजने कहा है‒

तुलसी  ममता  राम  सों,  समता सब संसार ।

राग न रोष न दोष दुख,  दास भए भव पार ॥

(दोहावली ९४)

गीतामें आया है‒

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं    कर्म   कारणमुच्यते ।

योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥

(गीता ६/३)

‘जो योग (समता)-में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगीके लिये कर्तव्य-कर्म करना कारण कहा गया है और उसी योगारूढ़ मनुष्यका शम (शान्ति) परमात्मप्राप्तिमें कारण कहा गया है ।’

शम (शान्ति)-का अर्थ है‒कुछ न करना । जबतक ‘करने’ के साथ सम्बन्ध है, तबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है और जबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है, तबतक अशान्ति है, दुःख है, जन्म-मरण है । प्रकृतिके साथ सम्बन्ध ‘न करने’ से मिटेगा । कारण कि क्रिया और पदार्थ दोनों प्रकृतिके हैं । चेतन-तत्त्वमें न क्रिया है, न पदार्थ । क्रिया अनित्य है, अक्रियपना नित्य है । क्रियाका आरम्भ और अन्त होता है, पर अक्रियपना नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है । इसलिये परमात्मप्राप्तिके लिये ‘शम’ अर्थात्‌ कुछ न करना ही कारण है । हाँ, अगर इस शान्तिका उपभोग किया जायगा तो परमात्माकी प्राप्ति नहीं होगी । ‘मैं शान्त हूँ’‒इस प्रकार शान्तिमें अहंकार लगानेसे ‘बड़ी शान्ति है’‒इस प्रकार शान्तिमें राजी होनेसे शान्तिका उपभोग हो जाता है । इसलिये शान्तिमें व्यक्तित्व न मिलाये, प्रत्युत ऐसा समझे कि शान्ति स्वतः है । शान्तिका उपभोग करनेसे शान्ति नहीं रहेगी, प्रत्युत चंचलता आ जायगी अथवा नींद आ जायगी । उपभोग नहीं करनेसे शान्ति स्वतः रहेगी । बिना क्रिया और बिना अभिमानके जो स्वतः शान्ति होती है, वह ‘योग’ है । कारण कि उस शान्तिका कोई कर्ता या भोक्ता नहीं है । जहाँ कर्ता या भोक्ता होता है, वहाँ भोग होता है । भोग होनेपर संसारमें स्थिति होती है ।

सम्पूर्ण क्रियाएँ और पदार्थ संसारके और संसारके लिये हैं । इसलिये कर्मयोगी इनको अपने और अपने लिये न मानकर संसारकी ही सेवामें लगा देता है । सेवामें लगानेसे उसका क्रिया और पदार्थरूप संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । प्रकृति श्रमरूप है और परमात्मतत्त्व विश्रामरूप है । इसलिये ज्ञानयोगी क्रिया और पदार्थसे असंग होकर विश्रामको स्वीकार करता है । विश्रामको स्वीकार करनेका तात्पर्य है‒अपना जो चिन्मय सत्तामात्र स्वरूप है, उसमें स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव करना । परन्तु भक्तियोगी भगवदाश्रयको स्वीकार करता है अर्थात्‌ अपना चिन्मय सत्तामात्र स्वरूप भी जिसका अंश है, उस भगवान्‌के आश्रयको स्वीकार करता है । सेवा और विश्रामसे मुक्ति होती है तथा भगवदाश्रयसे प्रेमकी प्राप्ति होती है ।

यह एक सिद्धान्त है कि जो सर्वव्यापक तत्त्व होता है, उसकी प्राप्ति किसी क्रियासे नहीं होती । क्रिया करते ही हम उससे अलग होते हैं । अगर हम कुछ भी क्रिया नहीं करेंगे तो उस परमात्मतत्त्वमें ही स्थिति होगी । इसलिये साधक चलते-फिरते, उठते-बैठते हरदम शान्त रहनेका स्वभाव बना ले ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे