जैसे, आपने रुपयोंका एक बक्सा भर लिया और हमने रद्दी
अखबारोंका एक बक्सा भर लिया । अगर काममें न लें तो रुपये
और रद्दीमें क्या फर्क हुआ ? ऐसे ही एक बक्सेमें सोना रखा जाय और एक
बक्सेमें पत्थर रखे जायँ । काममें लेनेपर सोना अपनी जगह है और पत्थर अपनी जगह है ।
परन्तु अगर काममें न लें तो सोना और पत्थरमें क्या फर्क हुआ ? इससे
सिद्ध हुआ कि ये चीजें खर्च करनेसे ही काम आती हैं, संग्रह करनेसे नहीं; नहीं तो
छोड़कर मरना पड़ेगा ही । अब
ज्यादा धन छोड़कर मर गये तो क्या और थोड़ा धन छोड़कर मर गये तो क्या ? अपने साथ उसका
सम्बन्ध तो रहेगा नहीं । इसलिये आपके पास जो वस्तुएँ हैं
उनको यथायोग्य खर्च करो । खर्च करनेसे वे अपने काम भी आयेंगी और दूसरोंके काम भी
आयेंगी । रुपये आदि वस्तुओंको यों ही नष्ट करना भी मनुष्यता नहीं है और
उनका केवल संग्रह करना भी मनुष्यता नहीं है । यथायोग्य जहाँ चाहिये, वहाँ खर्च करना है और न्यायपूर्वक धनका उपार्जन करना
है । यह मनुष्यता है । लोभमें नहीं फँसना है । निर्वाहके लिये भोजन आदि
करना है, जिससे शरीर ठीक रहे । भगवान्का भी भजन करें, संसारकी सेवा भी करें और
घरका काम-धन्धा भी करें, इसलिये शरीरको ठीक रखना है । अगर भोगोंमें ही लग जायँगे
तो भोग भोगते शरीर खराब हो जायगा, किसी कामके
लायक नहीं रहेगा । पारमार्थिक उन्नति तो कर ही नहीं सकेंगे, लौकिक
काम-धन्धा भी नहीं होगा । कारण कि रोगी शरीरसे कुछ भी सेवा नहीं हो सकेगी । पदार्थोंका संग्रह करना और भोग भोगना‒ये असुरोंके लक्षण हैं,
मनुष्योंके लक्षण नहीं हैं । यह आसुरी सम्पत्ति है, जो बाँधनेवाली है‒‘निबन्धायासुरी मता’ (गीता १६/५)। मनुष्यको यह होश रखना चाहिये कि केवल संग्रह करनेके लिये
नहीं कमाना है । केवल भोग भोगनेके लिये, ऐश-आराम करनेके
लिये नहीं कमाना है; किन्तु अपना निर्वाहमात्र करके पारमार्थिक और लौकिक
व्यवहारमें उसका सदुपयोग करना है । पारमार्थिक उन्नति करना है । दूरदृष्टि
रखनी है कि मरनेके बाद हमारा कल्याण हो जाय, मुक्ति हो जाय । अगर पाप करते रहोगे
तो आगे नरकोंमें जाना पड़ेगा, चौरासी लाख योनियोंमें जाना पड़ेगा, इसपर बहुत विचार
करनेकी आवश्यकता है । मनुष्यका खास उद्देश्य परमात्मतत्त्वको प्राप्त करना है,
अपना कल्याण करना है । कल्याण क्या है ? लाभ तो पूरा मिल जाय और नुकसान
किसी तरहका न हो । सुख ऊँचा-से-ऊँचा मिल जाय और दुःखकी वहाँ पहुँच न हो । केवल
आनन्द-ही-आनन्द रहे । इसीको कल्याण कहते हैं, मुक्ति कहते हैं । इसको प्राप्त
करनेके लिये ही मानव-शरीर मिला है, तुच्छ भोगोंमें फँसकर महान् दुःख पानेके लिये
नहीं । नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒ ‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे |