गाय बहुत उपयोगी है, श्रेष्ठ भी है, हम उससे लाभ भी बहुत लेते हैं, इसलिये
गायकी रक्षा करना हमारा मुख्य कर्तव्य होता है । परन्तु गाय परमात्मतत्त्वको
प्राप्त कर ले, ऐसी योग्यता उसमें नहीं है । यह योग्यता केवल मनुष्य-शरीरमें ही है
। मनुष्यकी जितनी महिमा है, उतनी देवताओंकी भी नहीं है । देवताओंके शरीर दिव्य
होते हैं, हमारे शरीरकी तरह हाड़-माँसके नहीं होते । हमारा शरीर पृथ्वीतत्त्वप्रधान
होता है, देवताओंके शरीर तैजस्-तत्त्वप्रधान होते हैं । जैसे, यह प्रकाश है, इस
प्रकाशमें सब दीखते हैं न ? यह तैजस् तत्त्व है । इसकी प्रधानता होती है
देवताओंमें । जैसे कोई मलसे भरा हुआ सूअर हो और वह हमारे पाससे निकले तो हमारेको
दुर्गन्ध आती है, ऐसे ही देवताओंको हमारे शरीरसे दुर्गन्ध आती है । ऐसा मलिन हमारा
शरीर है । परन्तु सज्जनो ! उन देवताओंको भी परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिका अधिकार
नहीं है । देवता सुख भोगनेके लिये ही हैं । उनका शरीर अच्छा है, उनका लोक अच्छा
है, उनका भोजन अमृतका है; परन्तु कल्याण करनेके लिये मानव-शरीरकी ही महिमा है,
देवताओंके शरीरोंकी नहीं । इसलिये मनुष्य-शरीरको सबसे दुर्लभ बताया गया है‒‘नर तन सम नहिं कवनिउ देही । जीव चराचर जाचत तेही ॥’ (मानस ७ ।
१२१ । ५) परन्तु मनुष्य-शरीरमें आकर भी जो अपना उद्धार नहीं करता, केवल
खाने-कमानेमें ही लगा रहता है, उसकी निन्दा की गयी है । रुपये-पैसोंका संग्रह हो जाय और उनसे हम सुख भोगें‒इन
दोनोंमें जो अत्यन्त आसक्त हो जाते हैं, वे मनुष्य परमात्मतत्त्व क्या है ? मुक्ति
क्या है ? जन्म-मरण मिटनेसे क्या लाभ है ? महान् आनन्द क्या है ?‒इसको जान नहीं
सकते । दुःख सदाके लिये मिट जाय और सदाके लिये महान् आनन्द हो जाय‒तत्त्वको
समझनेकी ताकत उनमें नहीं रहती । हमें उस तत्त्वको प्राप्त करना है, जो इस मनुष्य-शरीरसे ही प्राप्त किया जा सकता है । उसकी प्राप्ति
कैसे हो ? इसके लिये एक बात मुख्य है कि हमारा ध्येय, हमारा लक्ष्य केवल परमात्मतत्त्व
हो । जैसे मनुष्यका लक्ष्य धन कमानेका होता है, तो वह कहीं-का-कहीं चला
जाता है, ऐसे ही हमारा लक्ष्य परमात्मप्राप्तिका हो जाय । चाहे हम दुःख पायें, चाहे सुख पायें; चाहे निर्धन हो जायँ, चाहे धनवान् हो
जायँ; चाहे रोगी हो जायँ, चाहे निरोग हो जायँ; चाहे जीते रहें, चाहे मर जायँ; चाहे
लोग आदर करें, चाहे निरादर करें‒हमें तो उस परमात्मतत्त्वको प्राप्त करना है । ऐसा
मुख्य लक्ष्य हो जाता है, तो परमात्मप्राप्ति बहुत सुगम हो जाती है । जबतक
ऐसा लक्ष्य नहीं होता, तभीतक परमात्मप्राप्ति कठिन मालूम देती है । वास्तवमें
परमात्मतत्त्व-प्राप्ति कठिन नहीं है । कारण कि वह सब जगह है, सब देशमें है, सब
कालमें है, सम्पूर्ण व्यक्तियोंमें है, सम्पूर्ण घटनाओंमें है, सम्पूर्ण
क्रियाओंमें है । संसारका कोई भी, किंचिन्मात्र भी ऐसा परमाणु नहीं है, जहाँ
परमात्मा न हो । उसकी प्राप्तिमें कठिनाई यही है कि उसे
प्राप्त करनेकी जोरदार इच्छा नहीं है, सांसारिक भोगोंमें और संग्रहमें फँसे हुए
हैं, अतः इनसे उपराम होकर परमात्मतत्त्वको प्राप्त करनेका उद्देश्य बनाना चाहिये । रुपयोंसे वस्तु, वस्तुसे शरीर, शरीरसे विवेक और
विवेकसे भी सत्य-तत्त्व परमात्मा श्रेष्ठ है । इसलिये परमात्माको सबसे अधिक आदर
देकर उसको प्राप्त कर लेना ही मनुष्यका खास कर्तव्य है और इसीमें मनुष्य-जीवनकी
सफलता है । नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒ ‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे |