सज्जनो ! अपना उद्धार कर लो, अभी मौका है ।
भगवान्ने बड़ी कृपा करके यह मानव-शरीर दिया है । यह
मानव-शरीर भगवान्का भजन करनेके योग्य है, इसलिये इसको निरर्थक नष्ट मत होने दो ।
इस संसारमें अपना कोई भी नहीं है, अपने तो एक परमात्मा ही हैं । यह जो आपके
पास धन है, शरीर है, योग्यता है, यह संसारकी सेवाके लिये है । शरीर भी आपका नहीं
है, मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ भी आपकी नहीं हैं, कुटुम्ब भी आपका नहीं है, रुपये-पैसे
भी आपके नहीं हैं । ये तो दूसरोंकी सेवा करनेके लिये हैं । अपने लिये तो केवल
परमात्मा ही हैं । इससे
भी बढ़िया बात है कि आप परमात्माके लिये हो जाओ । परमात्मासे अपने लिये कुछ भी मत
चाहो । जो परमात्मासे कुछ भी नहीं चाहता, उसकी गरज परमात्मा करते हैं ! एक बाबाजी थे । एक दिन वे एक ऊँची टोपी
पहनकर बड़ी मस्तीसे भजन कर रहे थे । भगवान् विनोदी ठहरे, वे बाबाजीके पास आये और
बोले‒वाह-वाह, आज तो बड़ी ऊँची टोपी लगाकर बैठे हो ! बाबाजी बोले‒किसीसे माँगकर
थोड़े ही लाया हूँ, अपनी है । भगवान्ने कहा‒मिजाज करते हो ? बाबाजी बोले‒उधार लाये
हैं क्या मिजाज ? भगवान् बोले‒तुम मेरेको जानते हो कि नहीं ? बाबाजी बोले‒अच्छी
तरहसे जानता हूँ । भगवान्ने कहा‒मैं सबको कह दूँगा कि यह अभिमानी है, भक्त नहीं
है, तब क्या दशा होगी ? दुनिया भक्त मानकर ही तो तुम्हारी सेवा करती है और तुम
मिजाज करते हो ? बाबाजी बोले‒तुम कह दोगे तो मैं भी कह दूँगा कि मैंने भजन करके
देखा है, भगवान् कुछ भी नहीं हैं । तुम्हारी प्रसिद्धि
तो हमने ही कर रखी है, नहीं तो कौन पूछता तुम्हें ? भगवान् बोले‒ऐसा मत
कहना । बाबाजीने कहा‒तो आप भी मत कहना, हम भी नहीं कहेंगे । इस प्रकार भक्त भगवान्की
भी गरज नहीं करते । ऐसे भक्तोंके लिये भगवान् कहते हैं‒‘मैं
तो हूँ भगतनको दास, भगत मेरे मुकुटमणि ।’ भक्तोंमें ऐसा नहीं है कि साधु ही भक्त
होते हैं, बहनें भी भक्त होती हैं । मीराँ जाई मेड़ते परणाई चितोड़ । राम भगतिके कारणे सकल सृष्टि को मोड़ ॥ राम दड़ी चौड़े पड़ी, सब कोई खेलो आय । दावा नहीं संतदास, जीते सो ले जाय ॥ जाट भजो गूजर भजो, भावे भजो अहीर । तुलसी रघुबर नाम में, सब काहू
का सीर ॥ कोई भी क्यों न हो, वह भगवान्का अंश है । भगवान्का अंश
होनेसे प्रत्येक जीवका भगवान्पर हक लगता है; जैसे बालकका अपनी माँपर हक लगता है ।
भगवान् हमें कपूत या सपूत कह सकते हैं, पर ‘पूत नहीं है’ अर्थात् मेरा नहीं
है‒ऐसा नहीं कह सकते । हम चाहे कपूत हैं, चाहे सपूत, पर पूत तो हैं ही, हैं तो हम
भगवान्के ही । अब कपूताई दूर कर दो काम
बन गया, बस । इतनी-सी बात है, कोई लंबी-चौड़ी बात नहीं ।
आप कहते हैं कि धनके बिना धार्मिक आयोजन कैसे होगा ?
वास्तवमें उस धनको ही धार्मिक आयोजनोंकी गरज है, धार्मिक
आयोजनोंको उस धनकी गरज नहीं है । जो धनकी गरज
मानते हैं, वे धनके दास हैं, धर्मके दास नहीं । |