एक राजपूत था और एक बनिया था । दोनों
आपसमें भिड़ गये तो राजपूतको गिराकर बनिया ऊपर चढ़ बैठा । राजपूतने उससे पूछा‒अरे !
तू कौन है ? उसने कहा‒मैं बनिया हूँ । सुनते ही राजपूतने जोशमें आकर कहा कि अरे !
बनिया मेरेको दबा दे ! यह कैसे हो सकता है ! और
चट बनियेको नीचे दबा दिया । यह तो एक दृष्टान्त है । तात्पर्य यह है कि आप
तो निरन्तर रहनेवाले हो और कामना निरन्तर रहनेवाली है ही नहीं । जैसे राजपूतने
सोचा कि मैं तो क्षत्रिय हूँ, मेरेको बनिया नहीं दबा सकता, ऐसे ही आप भी राजपूत
हो, भगवान्के पूत हो; आप विचार
करो कि असत्की कामना मेरेको कैसे दबा सकती है ?
कामना भी असत्की और कामना खुद भी असत्, वह सत्को दबा दे‒यह हो ही नहीं सकता ।
बस, इतनी ही बात है । लम्बी-चौड़ी बात है ही नहीं । अब इसमें क्या कठिनता
है, आप बताओ ? एकदम सीधी बात है । आप थोड़ी हिम्मत रखो कि मैं तो हरदम रहनेवाला हूँ
। बालकपनसे लेकर अभीतक मैं वही हूँ । मैं पहले भी था, अब भी हूँ और बादमें भी
रहूँगा, नहीं तो किये हुए कर्मोंका फल आगे कौन भोगेगा ? मैं तो रहनेवाला हूँ और ये
शरीर आदि असत् वस्तुएँ रहनेवाली हैं ही नहीं । इनके परवश मैं कैसे हो सकता हूँ ?
नहीं हो सकता । आप हिम्मत मत हारो । हिम्मत मत छाड़ो नरां, मुख
सूं कहतां राम । हरिया हिम्मत सूं कियां, ध्रुव
का अटल धाम ॥ ये बातें बहुत सुगम हैं । आप पूरा विचार नहीं करते‒यह बाधा है । न तो स्वयं सोचते हो और
न कहनेपर स्वीकार करते हो । अब क्या करें, बताओ ? आप सत् हो और ये बेचारे
असत् है, आगन्तुक हैं । आप मुफ्तमें ही इनसे दब गये । अपने
महत्त्वकी तरफ आप ध्यान नहीं देते । आप कौन है‒इस तरफ आप ध्यान नहीं देते । आप
परमात्माके अंश हो । आपमें असत् कैसे टिक सकता है ? यह आपके बलसे ही बलवान् हुआ
है । इसमें खुदका बल नहीं है । यह तो है ही असत् ! आप सत् हो और आपने ही
इसको महत्त्व दिया है ।
जैसे किसीका पुत्र मर गया, तो बड़ा शोक
होता है कि मेरा लड़का चला गया ! लड़का तो एक बार मरा और शोक रोजाना करते हो, तो
बताओ कि शोक प्रबल है या लड़केका मरना प्रबल है ? लड़का तो एक बार ही मर गया, खत्म
हुआ काम, पर शोकको आप जीवित रखते हो । शोकमें ताकत कहाँ है रहनेकी ? शोक तो लड़केके
मरनेसे पैदा हुआ है बेचारा ! उस शोकको आप रख सकोगे नहीं । कुछ वर्षोंके बाद आप भूल
जाओगे । शोक आपसे-आप नष्ट हो जायगा । आप बार-बार याद करके उसको जीवित रखते हो, फिर
भी उसको जीवित रख सकोगे नहीं । दस-पन्द्रह वर्षके बाद वह यादतक नहीं आएगा । इसलिये
उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुको आप महत्त्व मत दो,
उसकी परवाह मत करो । हमारी बात तो इतनी ही है कि आप असत्को महत्त्व क्यों देते हो
? अपने विवेकको महत्त्व क्यों नहीं देते ? |