भोगोंकी रुचिकी पूर्ति कभी नहीं होगी । इसकी तो
निवृत्ति ही होगी । रुचिकी पूर्ति असम्भव है । ज्यों-ज्यों भोग भोगोगे, रुपयोंका संग्रह करोगे,
त्यों-त्यों उनकी रुचि बढ़ती जायगी‒‘जिमि प्रतिलाभ लोभ
अधिकाई’ । न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय
एवाभिवर्धते ॥ (श्रीमद्भागवत ९/१९/१४) विषयोंके उपभोगसे यह रुचि शान्त नहीं होती । आगमें
सुहाता-सुहाता घी डालते रहें तो क्या आग बुझ जायगी ? वह तो और बढ़ेगी । ऐसे ही
भोगोंकी और संग्रहकी रुचि आगे-आगे बढ़ती रहेगी । अन्तमें सब छोड़कर मरना पड़ेगा । यह जो मनमें आदर-सत्कारकी, मान-बड़ाईकी रुचि है कि लोग मेरेको
अच्छा कहें, बड़ा कहें, आराम दें, सुख दें, मेरे अनुकूल बन जायँ, यह बहुत घातक है ।
साधकके लिये तो महान् ही घातक है । इस रुचिसे केश जितना भी फायदा नहीं है और
नुकसान महान् है । यह बात बिलकुल नहीं है कि रुचि नष्ट नहीं होती । अगर रुचि
नष्ट न होती हो तो किसीकी भी नष्ट नहीं होनी चाहिये । आजतक
किसीकी भी रुचिकी पूर्ति नहीं हुई, पर यह हटी है सैकड़ोंकी‒‘बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः’ (गीता ४/१०) ।
रुचिका नाश करनेवाले इतिहासमें सैकड़ों-हजारों आदमी मिलेंगें, पर रुचिकी पूर्ति
करनेवाला एक भी आदमी नहीं मिलेगा । जिसकी पूर्ति होती ही नहीं, उसको छोड़नेमें क्या हानि है
आपको ? श्रोता‒महाराजजी, बालकपनमें
जो रुचि थी, वह तो खत्म हो गयी । बालकपनतक तो वह रुचि रहेगी । स्वामीजी‒बालकपनवाली रुचिमें फर्क नहीं पड़ेगा, चाहे आप बूढ़े हो जाओ । विषय बदल गया, स्थान बदल गया, पर रुचि वही (पहलेवाली) है,
मिटी नहीं है । अब आप मिटाओगे तो टिकेगी नहीं, रखोगे तो मिटेगी नहीं । आप रखोगे तो उसको मिटानेकी ताकत ब्रह्माजीमें भी नहीं है ।
बड़े-बड़े सन्त-महात्मा, जीवन्मुक्त महापुरुष भी आपकी रुचिको मिटा नहीं सकते ।
आप मिटाओ तो मिट जायगी । आप नहीं छोड़ोगे तो वे कैसे छुड़वायेंगे ? आप चाहो तो छूट
सकती है; और नहीं छूटे तो प्रार्थना करो, रोओ, भगवान्से
कहो कि यह छूटती नहीं तो भगवान्की कृपासे छूट जायगी । खास बात है कि आप इसको
छोड़नेका विचार ही नहीं करते । एक बहुत मार्मिक बात है कि सांसारिक रुचिके त्यागकी जितनी महिमा है, उतनी दया, क्षमा,
उदारता आदि अच्छे-अच्छे गुण धारण करनेकी भी नहीं है । यह जो निषेधात्मक साधन है, यह विधेयात्मक साधनसे भी
ऊँचा है, पर लोग इस तरफ ध्यान कम देते हैं । निषेधात्मक साधन करनेसे
विध्यात्मक साधन स्वतः होता है । जो साधन स्वतः होता है, उसका अभिमान नहीं होता । गीताने सुखकी रुचिको ज्ञानियों (विवेकियों)-का नित्य वैरी
बताया है‒‘ज्ञानिनो नित्यवैरिणा’ (३/३९) । अज्ञानीको
तो भोगोंमें सुख दीखता है, पर ज्ञानी सुखकी रुचि पैदा होते ही समझता है कि यह मेरा
पतन करनेवाली चीज है । इसकी कभी पूर्ति नहीं होगी । यह आग है, आग‒‘दुष्पूरेणानलेन च’ ! इससे बड़ा भारी नुकसान है । इसलिये सज्जनो ! कम-से-कम इतना तो करो कि रुचिके वशमें होकर
कोई कार्य मत करो । उसके वशीभूत होकर कार्य करते रहोगे तो वह कभी मिटनेवाली नहीं
है । हजारों, लाखों, करोड़ों, अरबों जन्मोंतक भी वह मिटेगी नहीं । आप कितने भी पढ़ जाओ, कितने ही व्याख्यान देनेवाले बन जाओ,
कितनी ही पुस्तकें लिख दो, कितने ही बड़े बन जाओ, पर जबतक संयोगजन्य सुखकी रुचि रहेगी, तबतक
शान्ति नहीं मिलेगी । यह सुखकी रुचि आपका पतन करेगी ही । जितना नुकसान हो
रहा है, सब इसीसे हो रहा है । संसारमें जितने कराह रहे हैं, दुःख पा रहे हैं, रो
रहे हैं, कष्ट पा रहे हैं, चिल्ला रहे हैं, नरकोंमें पड़े हैं, चौरासी लाख योनियोंमें पड़े हैं, सब इस रुचिका ही फल
है । इस रुचिके रहते हुए आपको किसी तरहसे शान्ति नहीं मिलेगी । इसलिये कृपा
करके इस रुचिका नाश करो । आपसे न हो तो भगवान्से प्रार्थना करो कि हे नाथ ! इस
रुचिका नाश हो जाय ! आपके भीतर रुचिका नाश करनेकी रुचि पैदा हो जाय अर्थात्
आपका पक्का विचार हो जाय कि इसको मिटाना है तो वह मिट जायगी । नारायण ! नारायण !! नारायण !!! ‒ ‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे ❈❈❈❈ ❈❈❈❈ ❈❈❈❈ |