भगवान्की
मंगलमयी अपार कृपासे भारतभूमिपर अनन्तकालसे असंख्य ऋषि, सन्त-महात्मा, भक्त होते
रहे हैं । उनमें भक्तशिरोमणि श्रीहनुमान्जी महाराजका विशेष स्थान है । वानर-जैसी
साधारण योनिमें जन्म लेकर भी अपने भावों, गुणों और आचरणोंके द्वारा हनुमान्जीने
प्राणिमात्रका जो परम हित किया है एवं कर रहे हैं, उससे लोग प्रायः परिचित ही हैं ।
उनके उपकारसे कोई भी प्राणी कभी उऋण नहीं हो सकता । भगवान् श्रीरामके प्रति उनकी
जो दास्य-भक्ति है, उसका पूरा वर्णन करनेकी सामर्थ्य किसीमें भी नहीं है । फिर भी
समय सार्थक करनेके लिये उसका किंचित् संकेत करनेकी चेष्टा की जा रही है । अपने-आपको
सर्वथा भगवान्को समर्पित कर देना, उनके मनोभाव, प्रेरणा अथवा आज्ञाके अनुसार उनकी
सेवा करना, उनको निरन्तर सुख पहुँचानेका भाव रखना तथा बदलेमें उनसे कभी कुछ न
चाहना‒यही भक्तिका स्वरूप है । ये बातें
हनुमान्जीमें पूर्णरूपसे पायी जाती हैं । वे अपने शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि,
बल, योग्यता, समय आदिको एकमात्र भगवान्का ही समझकर उनकी सेवामें लगाये रखते हैं ।
उनका पूरा जीवन ही भगवान्को सुख पहुँचानेके भावसे ओतप्रोत है । भगवान्को
श्रद्धा-प्रेमपूर्वक सुख पहुँचानेके भावको ‘रति’ कहते हैं । यह रति मुख्यरूपसे चार
प्रकारकी मानी गयी है‒दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य । इनमें दास्यसे सख्य, सख्यसे
वात्सल्य और वात्सल्यसे माधुर्य रति श्रेष्ठ है । कारण कि इनमें भक्तको क्रमशः भगवान्के
ऐश्वर्यकी अधिक विस्मृति होती जाती है और भक्तका संकोच (कि मैं तुच्छ हूँ, भगवान्
महान् हैं) मिटता जाता है तथा भगवत्सम्बन्ध (प्रेम)-की घनिष्ठता होती जाती है ।
परन्तु जब इन चारोंमेंसे कोई एक रति भी पूर्णतामें पहुँच जाती है, तब उसमें दूसरी
रतियाँ भी आ जाती हैं । जैसे, दास्यरति पूर्णतामें पहुँच जाती है तो उसमें
सख्य, वात्सल्य और माधुर्य‒तीनों रतियाँ आ जाती हैं । यही बात अन्य रतियोंके
विषयमें भी समझनी चाहिये । कारण यह है कि भगवान् पूर्ण हैं, उनका प्रेम भी पूर्ण
है और परमात्माका अंश होनेसे जीव स्वयं भी पूर्ण है । अपूर्णता तो केवल संसारके सम्बन्धसे ही
आती है; क्योंकि संसार सर्वथा अपूर्ण है । हनुमान्जीमें दास्यरतिकी
पूर्णता है; अतः उनमें अन्य रतियोंकी कमी नहीं है । उनमें दास्य, सख्य, वात्सल्य
और माधुर्य‒चारों रतियाँ पूर्ण रूपसे विद्यमान हैं । १-दास्य-रति दास्य-रतिमें
भक्तका यह भाव रहता है कि भगवान् मेरे स्वामी हैं और मैं उनका दास (सेवक) हूँ ।
वे चाहे जो करें, चाहे जैसी परिस्थितिमें मेरेको रखें और मेरेसे चाहे जैसा काम
लें, मेरेपर उनका पूरा अधिकार है । इस रतिमें भक्तका शरीर,
इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिमें किंचिन्मात्र भी अपनापन नहीं रहता । उसमें ‘मैं सेवक हूँ’ ऐसा अभिमान भी नहीं रहता । वह तो यही समझता
है कि मैं भगवान्की प्रेरणा और शक्तिसे उन्हींकी दी हुई सामग्री उनके ही अर्पण कर
रहा हूँ । ऐसे अनन्य सेवाभाववाले भक्तोंको यदि भगवान् सालोक्य, सार्ष्टि,
सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य‒ये पाँच प्रकारकी मुक्तियाँ[*] भी दे दें तो वे
इनको ग्रहण नहीं करते‒ सालोक्यसार्ष्टिसामीप्यसारूप्यैकत्वमप्युत
। दीयमानं
न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ॥
[*] भगवान्के
नित्यधाममें निवास करना ‘सालोक्य’, भगवान्के समान ऐश्वर्य प्राप्त करना
‘सार्ष्टि’, भगवान्की नित्य समीपता प्राप्त करना ‘सामीप्य’, भगवान्का-सा रूप
प्राप्त करना ‘सारूप्य’ तथा भगवान्के विग्रहमें समा जाना अर्थात् उनमें ही मिल
जाना ‘सायुज्य’ मुक्ति कहलाती है । |