।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
       पौष शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०७८, बुधवार
              भक्तशिरोमणि 
      श्रीहनुमान्‌जीकी दास्य-रति


२-सख्य-रति

सख्य-रतिमें भक्तका यह भाव रहता है कि भगवान्‌ मेरे सखा हैं और मैं उनका सखा हूँ । वे मेरे प्यारे हैं और मैं उनका प्यारा हूँ । उनका मेरेपर पूरा अधिकार है और मेरा उनपर पूरा अधिकार है । इसलिये मैं उनकी बात मानता हूँ तो उनको भी मेरी बात माननी चाहिये । दास्य-रतिमें तो सेवकको यह संकोच होता है कि कहीं स्वामी मेरेसे नाराज न हो जायँ अथवा उनके सामने मेरेसे कोई भूल न हो जाय ! परन्तु सख्य-रतिमें यह संकोच नहीं रहता; क्योंकि इसमें भगवान्‌से बराबरीका भाव रहता है ।

सख्यभावके कारण भगवान्‌ श्रीराम हनुमान्‌जीसे सलाह लिया करते हैं । जब विभीषण भगवान्‌ श्रीरामकी शरणमें आते हैं, तब भगवान्‌ इस विषयमें हनुमान्‌ आदिसे कहते हैं‒

सुहृदामर्थकृच्छ्रेषु  युक्तं बुद्धिमता सदा ।

समर्थेनोपसंदेष्टुं शाश्वतीं भूतिमिच्छता ॥

(वाल्मीकि युद्ध १७/३३)

‘मित्रोंकी स्थायी उन्नति चाहनेवाले बुद्धिमान्‌ एवं समर्थ पुरुषको कर्तव्याकर्तव्यके विषयमें संशय उपस्थित होनेपर सदा ही अपनी सम्मति देनी चाहिये ।’

अंगद, जाम्बवान् आदिके द्वारा अपना मत प्रकट करनेके बाद हनुमान्‌जी कहते हैं‒

न वादान्नापि संघर्षान्नाधिक्यान्न च कामतः ।

वक्ष्यामि वचनं राजन्‌ यथार्थं राम गौरवात् ॥

(वाल्मिक युद्ध १७/५२)

‘महाराज राम ! मैं जो कुछ कहूँगा, वह वाद-विवाद या तर्क, स्पर्धा, अधिक बुद्धिमत्ताके अभिमान अथवा किसी प्रकारकी कामनासे नहीं कहूँगा । मैं तो कार्यकी गुरुतापर दृष्टि रखकर जो यथार्थ समझूँगा, वही बात कहूँगा ।’

इसके बाद हनुमान्‌जी अपनी सम्मति देते हैं कि विभीषणको स्वीकार कर लेना ही मुझे उचित जान पड़ता है । हनुमान्‌जीके मुखसे अपने मनकी ही बात सुनकर भगवान्‌ प्रसन्न हो जाते हैं और उनकी सलाह मान लेते हैं ।

३-वात्सल्य-रति

वात्सल्य-रतिमें भक्तका यह भाव रहता है कि मैं भगवान्‌की माता हूँ या उनका पिता हूँ अथवा उनका गुरु हूँ और वे मेरे पुत्र हैं अथवा शिष्य हैं । अतः मेरेको उनका पालन-पोषण करना है, उनकी रक्षा करनी है ।

हनुमान्‌जीको भगवान्‌ श्रीरामका पैदल चलना सहन नहीं होता । जैसे माता-पिता अपने बालकको गोदमें लेकर चलते हैं, ऐसे ही रामजीकी कहीं जानेकी इच्छा होते ही हनुमान्‌जी उनको अपनी पीठपर बैठाकर चल पड़ते हैं‒

लिये दुऔ जन पीठि चढ़ाई ॥ (मानस ४/४/३)

पृष्ठमारोप्य तौ वीरौ जगाम कपिकुञ्जरः ॥

(वाल्मीकि कि ४/३४)

४-माधुर्य-रति

माधुर्य-रतिमें भक्तको भगवान्‌के ऐश्वर्यकी विशेष विस्मृति रहती है; अतः इसमें भक्त भगवान्‌के साथ अपनी अभिन्नता (घनिष्ट अपनापन) मानता है ।

माधुर्य-भाव स्त्री-पुरुषके सम्बन्धमें ही होता है‒यह नियम नहीं है । माधुर्य नाम मधुरता अर्थात्‌ मिठासका है और वह मिठास भगवान्‌के साथ अभिन्नता होनेसे आती है । यह अभिन्नता जितनी अधिक होगी, उतनी ही मधुरता अधिक होगी । अतः दास्य, सख्य तथा वात्सल्य-भावोंमेंसे किसी भी भावकी पूर्णता होनेपर उसमें मधुरता कम नहीं होगी । भक्तिके सभी भावोंमें माधुर्य-भाव रहता है ।