।। श्रीहरिः ।।

     


आजकी शुभ तिथि–
  माघ कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७८, मंगलवार
               गीताका तात्पर्य


व्यवहार करते हुए तत्त्वज्ञान हो जाय, भगवद्भक्ति हो जाय, योगका अनुष्ठान हो जाय, लययोग, राजयोग, मन्त्रयोग आदि योगोंकी प्राप्ति हो जाय‒ऐसी विलक्षण विद्या गीताने बतायी है ! वह विलक्षण विद्या क्या है‒इसको बतानेकी चेष्टा की जाती है । हम जो-जो व्यवहार करते हैं, उसमें अपने स्वार्थ और अभिमानका आग्रह छोड़कर सबके हितकी दृष्टिसे कार्य करें, हितकी दृष्टिसे कार्य करनेका तात्पर्य है कि वर्तमानमें भी हित हो और भविष्यमें भी हित हो, हमारा भी हित हो और दूसरे सबका भी हित हो‒ऐसी दृष्टि रखकर कार्य करे । ऐसा करनेसे बड़ी सुगमतासे परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जायगी । एकान्तमें रहकर वर्षोंतक साधना करनेपर ऋषि-मुनियोंको जिस तत्त्वकी प्राप्ति होती थी, उसी तत्त्वकी प्राप्ति गीताके अनुसार व्यवहार करते हुए हो जायगी । सिद्धि-असिद्धिमें सम रहकर कर्म करना ही गीताके अनुसार व्यवहार करना है । गीता कहती है‒

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।

ततो युद्धाय युजय्स्व  नैवं पापमवाप्स्यसि ॥

(२/३८)

‘जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान करके फिर युद्धमें लग जा । इस प्रकार युद्ध करनेसे तू पापको प्राप्त नहीं होगा ।’

योगस्थः कुरु  कर्माणि  सङ्गं  त्यक्ता  धनञ्जय ।

सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥

(२/४८)

‘हे धनञ्जय ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है ।’

संसारका स्वरूप है‒क्रिया और पदार्थ । परमात्म-तत्त्वकी प्राप्तिके लिये क्रिया और पदार्थसे सम्बन्ध-विच्छेद करना आवश्यक है । इसके लिये गीताने कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनों ही योगोंकी दृष्टिसे क्रिया और पदार्थोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी युक्ति बतायी है; जैसे‒कर्मयोगी क्रिया और पदार्थमें आसक्तिका त्याग करके उनको दूसरोंके हितमें लगाता है[*]; ज्ञानयोगी क्रिया और पदार्थसे असंग होता है[†] और भक्तियोगी क्रिया और पदार्थ भगवान्‌के अर्पण करता है[‡] । सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थोंको भगवान्‌के अर्पण करनेसे मनुष्य सुगमतापूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त होकर भगवान्‌को प्राप्त हो जाता है । भगवान्‌के अर्पण करनेसे क्रियाएँ और वस्तुएँ नहीं रहेगी‒यह बात नहीं है, प्रत्युत वे महान्‌ पवित्र हो जायँगी । जैसे भक्तलोग भगवान्‌को भोग लगाते हैं तो भोग लगायी हुई वस्तु वैसी-की-वैसी ही मिलती है, कम नहीं होती, पर वह वस्तु महान्‌ पवित्र हो जाती है । इसी तरह संसारमें भी हम जिस वस्तुको अपनी न मानकर दूसरोंकी सेवाके लिये मानते हैं, वह वस्तु महान्‌ पवित्र हो जाती है और जिस वस्तुको हम केवल अपने लिये ही मानते हैं, वह वस्तु महान्‌ अपवित्र हो जाती है ।


[*] यदा हि नेन्द्रियार्थेषु     न कर्मस्वनुषज्जते ।

  सर्वसङ्कल्पसंन्यासी     योगारूढस्तदोच्यते ॥

‘जिस समय न इन्द्रियोंके भोगोंमें तथा न कर्मोंमें ही आसक्त होता है, उस समय वह सम्पूर्ण संकल्पोंका त्यागी मनुष्य योगारूढ़ कहा जाता है ।

[†] तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।

   गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥

‘हे महाबाहो ! गुण-विभाग और कर्म-विभागको तत्त्वसे जाननेवाला महापुरुष ‘सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं’‒ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होता ।’

[‡] पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।

   तदहं     भक्त्युपहृतमश्नामि     प्रयतात्मनः ॥

   यत्करोषि  यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि  यत् ।

   यत्तपस्यसि  कौन्तेय    तत्कुरुष्व   मदर्पणम् ॥

‘जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि (यथासाध्य प्राप्त वस्तु)-को भक्तिपूर्वक मेरे अर्पण करता है, उस मेरेमें तल्लीन हुए अन्तःकरणवाले भक्तके द्वारा भक्तिपूर्वक दिये हुए उपहार (भेंट)-को मैं खा लेता हूँ ।’

‘हे कुन्तीपुत्र ! तू जो कुछ करता है, जो कुछ खाता है, जो कुछ यज्ञ करता हा और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे ।’