।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
     पौष शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७८, बुधवार

स्वार्थरहित सेवाका महत्त्व


परमश्रेयकी प्राप्तिमें केवल अपनी स्वार्थ-भावना ही बाधक है । आपके पास जितनी वस्तुएँ हैं, वे समष्टिकी हैं और सबकी सेवाके लिये हैं । उन वस्तुओंसे अपना निर्वाह भी दूसरोंकी सेवाके लिये करो, अपने सुखभोगके लिये नहीं‘एहि तन कर फल विषय न भाई’ (मानस ७/४४/१) । मनुष्य-शरीरका उद्देश्य विषय-भोग करना, संसारका सुख लेना नहीं है, प्रत्युत सबकी सेवा करना है । इसीलिये सबको सुख कैसे पहुँचे, सबको आराम कैसे पहुँचे, सबका भला कैसे होयही चिन्तन करो, यही विचार करो । ब्रह्माजी कहते हैं

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।

तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो     यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ॥

(गीता ३/१२)

‘यज्ञसे भावित (पुष्ट) हुए देवता ही तुमलोगोंको कर्तव्यपालनकी आवश्यक सामग्री देते रहेंगे । इस प्रकार उन देवताओंसे प्राप्त हुई समग्रीको दूसरोंकी सेवामें लगाये बिना जो मनुष्य स्वयं ही उसका उपभोग करता है, वह चोर ही है ।’

मनुष्यको जो सामग्री मिली है, वह सबकी सेवा करनेके लिये मिली है केवल अपने उपभोगके लिये नहीं, जो अकेला उसका उपभोग करता है, उसको चोर कहा गया है‘स्तेन एव सः’ । अगर मिली हुई सामग्री अपने उपभोगके लिये ही होती, तो उसको चोर नहीं कहते ! इसलिये मनुष्यको जो भी सामग्री मिली है, उसको अकेले भोगनेका अधिकार नहीं है । जैसे परिवारमें जो आदमी पैसे कमाता है, उसके द्वारा कमाये हुए पैसोंपर अकेले उसका हक नहीं लगता, प्रत्युत उसके पूरे परिवारका हक लगता है । अगर वह अपनी स्त्रीसे कह दे कि ‘मैं अकेला ही खाऊँगा; तू तो घरपर ही बैठी रहती है, तेरेको क्यों दिया जाय ? माँ-बापसे कहे कि आप तो ऐसे ही घरपर बैठे रहते हैं, आपको क्यों दिया जाय ? मैंने मेहनत की है, मैंने कमाया है; अतः मैं अकेला ही भोग करूँगा’ तो ऐसी परिस्थितिमें क्या परिवारमें सुख-शान्ति रहेगी ? परिवारका काम ठीक तरहसे चलेगा ? कभी नहीं । इसी तरहसे अगर लोग केवल अपने स्वार्थकी पूर्तिमें ही लगे रहेंगे तो सृष्टिका काम ठीक तरहसे नहीं चलेगा ।

हमारे पास जो कुछ है, वह सब हमें संसारसे ही मिला है । शरीर और उसके लिये अन्न, जल, वस्त्र, हवा, रहनेका स्थान आदि हमें समष्टि संसारसे मिले हैं । धनी-से-धनी व्यक्ति, राजा-महाराजा भी ऐसा नहीं कह सकता कि मैं दूसरेसे सेवा लिये बिना अपना निर्वाह कर लूँगा । कैसे कर लेगा ? वह सड़कपर चलेगा, तो क्या सड़क अपनी बनायी हुई है ? किसी वृक्षके नीचे ठहरेगा, तो क्या वह वृक्ष अपना लगाया हुआ है ? कहीं जल पीयेगा, तो क्या कुआँ अपना खुदवाया हुआ है ? उसे संसारसे लेना ही पड़ेगा, परवश होकर लेना पड़ेगा । लेना तो पशुओंको भी पड़ेगा, फिर मनुष्यकी बुद्धिकी क्या विशेषता हुई ? लिया है तो देना भी चाहिये; परवशतासे जो लिया है, उससे भी ज्यादा देना हैयह मनुष्यबुद्धिकी विशेषता है । भगवान्‌ने कहा है‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः’ (गीता १२/४) ‘जो मनुष्य प्राणिमात्रके हितमें रत होते हैं, वे मेरेको ही प्राप्त होते हैं ।’ प्राणिमात्रके हितमें रति होनी चाहिये । उनका हित कर देंयह हाथकी बात नहीं है । सारा संसार मिलकर एक आदमीकी इच्छा भी पूरी नहीं कर सकता, तो फिर एक आदमी सारे संसारकी इच्छा पूरी कैसे कर देगा ? मनुष्यका कर्तव्य यह है कि उसके पास जो सामग्री है, उसको वह उदारतापूर्वक दूसरोंके हितके लिये समर्पित कर दे । ऐसा करनेसे उसको कल्याणकी प्राप्ति हो जायगी ।

मनुष्य जितना-जितना व्यक्तिगत स्वार्थभाव रखेगा, उतना ही वह संसारमें नीचा माना जायगा । कमानेवाला केवल अपना ही पेट भरेगा, अकेला ही सामग्रीका उपभोग करेगा तो वह न घरमें आदर पायेगा, न बाहर । वह जितना-जितना व्यक्तिगत स्वार्थका त्याग करके कुटुम्बकी सेवा करेगा, उतना ही वह अच्छा माना जायगा । अगर वह केवल कुटुम्बका ही नहीं, पड़ोसियोंका भी हित चाहेगा तो वह और श्रेष्ठ होगा । केवल पड़ोसियोंका ही नहीं, सम्पूर्ण गाँवका हित चाहेगा तो वह और श्रेष्ठ होगा । केवल गाँवका ही नहीं, प्रान्तका हित चाहेगा तो वह और श्रेष्ठ होगा । अगर वह देश-विदेशका, सम्पूर्ण पृथ्वीका हित चाहेगा तो वह और श्रेष्ठ होगा ! अगर वह देवता, पशु, पक्षी, वृक्ष आदि मात्र जीवोंका हित चाहेगा तो वह और श्रेष्ठ होगा । अगर वह भगवान्‌की सेवा करेगा, भगवान्‌का भजन-कीर्तन-ध्यान करेगा तो वह सर्वश्रेष्ठ हो जायगा । जैसे वृक्षके मूलमें जल डालनेसे सम्पूर्ण वृक्ष स्वतः हरा हो जाता है, ऐसे ही संसाररूपी वृक्षके मूल भगवान्‌का चिन्तन करनेसे, भजन करनेसे संसारमात्रकी सेवा स्वतः हो जाती है ।

सिद्धान्त यह हुआ कि मनुष्यके द्वारा जितनी व्यापक सेवा होगी, उतना ही वह श्रेष्ठ हो जायगा । हमें जो कुछ मिला है, वह सृष्टिसे मिला है । इसलिये उसको बड़ी ईमानदारीसे सृष्टिकी सेवामें लगा देना चाहिये । यह गीताका कर्मयोग है ।

नारायण !     नारायण !     नारायण !

‘कल्याणकारी प्रवचन’ पुस्तकसे