।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०७८, सोमवार
             सत्‌-असत्‌का विवेक


(७)

असत्‌का भाव निरन्तर अभावमें बदल रहा है । परन्तु जो असत्‌के अभावको जानता है, उस सत्‌-तत्त्वका भाव कभी अभावमें नहीं बदलता ।

उस सत्‌-तत्त्वमें सबकी स्वतःसिद्ध स्थिति है, इसीलिये अपने अभावका अनुभव कभी किसीको नहीं होता । वह सत्‌-तत्त्व सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, घटना, परिस्थिति आदिसे सर्वथा अतीत है । असत्‌को सत्ता और महत्ता देनेके कारण मनुष्य सत्‌-तत्त्वमें स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव नहीं कर पाता । तात्पर्य है कि असत्‌की सत्तारूपसे मान्यता ही सत्‌की स्वीकृति नहीं होने देती । यहाँ शंका हो सकती है कि जब असत्‌की सत्ता है ही नहीं तो फिर वह दीखता क्यों है ? इसका समाधान यह है कि जिन इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहम्‌के द्वारा असत्‌ दीखता है, वे इन्द्रियाँ आदि भी उसी जातिके (असत्) ही हैं । तात्पर्य है कि असत्‌ (शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि-अहम्)-के साथ तादात्मय न करें तो असत्‌ है ही नहीं, प्रत्युत सत्‌-ही-सत्‌ है । इसलिये सत्‌-तत्व (आत्मा)-ने आजतक कभी असत्‌को देखा ही नहीं ! जैसे, सूर्यने आजतक कभी अन्धकारको देखा ही नहीं ! यह ज्ञानकी दृष्टिसे कहा गया है । अगर भक्तिकी दृष्टिसे देखें तो असत्‌ संसार प्रकृतिका कार्य है और प्रकृति भगवान्‌की शक्ति है[*] । भगवान्‌की शक्ति होनेसे प्रकृति और उसका कार्य भगवत्स्वरूप ही है; क्योंकि शक्ति शक्तिमान्‌से अलग नहीं हो सकती । जैसे शरीरके गोरे या काले रंगको शरीरसे अलग करके नहीं देख सकते, जाग्रत्‌-स्वप्न-सुषुप्ति अवस्थाओंको शरीरसे अलग करके नहीं देख सकते, ऐसे ही प्रकृतिको भगवान्‌से अलग करके नहीं देख सकते । जैसे, मनुष्य अपनी शक्ति (बल, ताकत, विद्वता, योग्यता, चातुर्य, सामर्थ्य आदि)-के बिना तो रह सकता है, पर शक्ति मनुष्यके बिना नहीं रह सकती, ऐसे ही भगवान्‌ तो शक्तिके बिना रह सकते हैं और रहते ही हैं[†], पर शक्ति भगवान्‌के बिना नहीं रह सकती । तात्पर्य है कि शक्ति भगवान्‌के अधीन (आश्रित) है, भगवान्‌ शक्तिके अधीन नहीं है । शक्तिमान्‌के बिना शक्तिकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव होता है, पर शक्तिके बिना शक्तिमान्‌का अभाव नहीं होता । अतः भगवान्‌की शक्ति होनेसे प्रकृतिकी भी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव है अर्थात्‌ एक भगवान्‌के सिवाय कुछ भी नहीं है । इसलिये भगवान्‌ने कहा है‒‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९/१९), ‘वासुदेवः सर्वम्’ (७/१९)यह गीताका सर्वोपरि सिद्धान्त है, जिसमें सम्पूर्ण मतभेद समाप्त हो जाते हैं और ‘वासुदेवः सर्वम्’ में अहम्‌की सूक्ष्म गन्ध भी नहीं है ।



[*] भूमिरापोऽनलो वायुः  खं मनो बुद्धिरेव च ।

  अहङ्कार इतीयं   मे    भिन्ना  प्रकृतिरष्टधा ॥

(गीता ७/४)

‘पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश‒ये पंचमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार‒यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी अपरा प्रकृति है ।’

मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् ।

(श्वेताश्वतर ४/१०)

‘माया तो प्रकृतिको समझना चाहिये और मायापति महेश्वरको समझना चाहिये ।’

[†] विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्‌ ॥ (गीता १०/४२)

‘मैं अपने किसी एक अंशसे सम्पूर्ण जगत्‌को व्याप्त करके स्थित हूँ ।’