(७) असत्का भाव निरन्तर अभावमें बदल रहा है । परन्तु जो असत्के
अभावको जानता है, उस सत्-तत्त्वका भाव कभी अभावमें नहीं बदलता । उस सत्-तत्त्वमें सबकी स्वतःसिद्ध स्थिति है, इसीलिये अपने
अभावका अनुभव कभी किसीको नहीं होता । वह सत्-तत्त्व सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु,
व्यक्ति, अवस्था, घटना, परिस्थिति आदिसे सर्वथा अतीत है । असत्को सत्ता और महत्ता देनेके कारण मनुष्य सत्-तत्त्वमें स्वतःसिद्ध
स्थितिका अनुभव नहीं कर पाता । तात्पर्य है कि असत्की सत्तारूपसे मान्यता ही सत्की
स्वीकृति नहीं होने देती । यहाँ शंका हो सकती है कि जब असत्की सत्ता है ही
नहीं तो फिर वह दीखता क्यों है ? इसका समाधान यह है कि जिन इन्द्रियाँ, मन,
बुद्धि, अहम्के द्वारा असत् दीखता है, वे
इन्द्रियाँ आदि भी उसी जातिके (असत्) ही हैं । तात्पर्य है कि असत् (शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि-अहम्)-के
साथ तादात्मय न करें तो असत् है ही नहीं, प्रत्युत सत्-ही-सत् है । इसलिये सत्-तत्व
(आत्मा)-ने आजतक कभी असत्को देखा ही नहीं ! जैसे, सूर्यने आजतक कभी अन्धकारको देखा ही नहीं ! यह ज्ञानकी दृष्टिसे कहा
गया है । अगर भक्तिकी दृष्टिसे देखें तो असत् संसार प्रकृतिका कार्य है और
प्रकृति भगवान्की शक्ति है[*] । भगवान्की शक्ति होनेसे प्रकृति और उसका कार्य
भगवत्स्वरूप ही है; क्योंकि शक्ति शक्तिमान्से अलग नहीं हो सकती । जैसे शरीरके
गोरे या काले रंगको शरीरसे अलग करके नहीं देख सकते, जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्ति
अवस्थाओंको शरीरसे अलग करके नहीं देख सकते, ऐसे ही प्रकृतिको भगवान्से अलग करके
नहीं देख सकते । जैसे, मनुष्य अपनी शक्ति (बल, ताकत, विद्वता, योग्यता, चातुर्य,
सामर्थ्य आदि)-के बिना तो रह सकता है, पर शक्ति मनुष्यके बिना नहीं रह सकती, ऐसे
ही भगवान् तो शक्तिके बिना रह सकते हैं और रहते ही हैं[†], पर शक्ति भगवान्के बिना नहीं रह सकती । तात्पर्य है कि
शक्ति भगवान्के अधीन (आश्रित) है, भगवान् शक्तिके अधीन नहीं है । शक्तिमान्के
बिना शक्तिकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव होता है, पर शक्तिके बिना शक्तिमान्का अभाव
नहीं होता । अतः भगवान्की शक्ति होनेसे प्रकृतिकी भी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव है अर्थात् एक भगवान्के सिवाय कुछ भी नहीं है । इसलिये
भगवान्ने कहा है‒‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९/१९), ‘वासुदेवः सर्वम्’ (७/१९) । यह गीताका सर्वोपरि सिद्धान्त है, जिसमें
सम्पूर्ण मतभेद समाप्त हो जाते हैं और ‘वासुदेवः
सर्वम्’ में अहम्की सूक्ष्म गन्ध भी नहीं है ।
[*]
भूमिरापोऽनलो
वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहङ्कार इतीयं मे
भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ (गीता ७/४) ‘पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश‒ये पंचमहाभूत और मन, बुद्धि
तथा अहंकार‒यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी अपरा प्रकृति है ।’ मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् । (श्वेताश्वतर॰ ४/१०) ‘माया तो प्रकृतिको समझना चाहिये और मायापति
महेश्वरको समझना चाहिये ।’ [†]
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥
(गीता १०/४२) ‘मैं अपने किसी एक अंशसे सम्पूर्ण जगत्को
व्याप्त करके स्थित हूँ ।’ |