।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
       ज्येष्ठ कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीतामें मूर्तिपूजा


एक वैरागी बाबा थे । वे एक छातेके नीचे रहते थे और वहीं शालिग्रामका पूजन किया करते थे । जो लोग मूर्तिपूजाको नहीं मानते थे, उनको बाबाजीकी यह क्रिया (मूर्तिपूजा) बुरी लगती थी । उन दिनों वहाँ हुक साहब नामका एक अंग्रेज अफसर आया हुआ था । उस अफसरके सामने उन लोगोंनें बाबाजीकी शिकायत कर दी कि यह मूर्तिकी पूजा करके सर्वव्यापक परमात्माका तिरस्कार करता है आदि-आदि । हुक साहबने कुपित होकर बाबाजीको बुलाया और उनको वहाँसे चले जानेका हुक्म दे दिया । दूसरे दिन बाबाजी हुक साहबका एक पुतला बनाया और उसको लेकर वे शहरमें घूमने लगे । वे लोगोंको दिखा-दिखाकर उस पुतलेको जूता मारते और कहते कि यह हुक साहब बिलकुल बेअक्ल हैं, इसमें कुछ भी समझ नहीं है आदि-आदि । लोगोंने पुनः हुक साहबसे शिकायत कर दी कि यह बाबा आपका तिरस्कार करता है, आपका पुतला बनाकर उसको जूता मारता है । हुक साहबने बाबाजीको बुलाकर पूछा कि तुम मेरा अपमान क्यों करते हो ? बाबाजीने कहा कि मैं आपका बिलकुल अपमान नहीं करता मैं तो आपके इस पुतलेका अपमान करता हूँ; क्योंकि यह बड़ा ही मूर्ख है । ऐसा कहकर बाबाजीने पुतलेको जूता मारा । हुक साहब बोले कि मेरे पुतलेका अपमान करना मेरा ही अपमान करना है । बाबाजीने कहा कि आप इस पुतलेमें अर्थात् मूर्तिमें हैं ही नहीं, फिर भी केवल नाममात्रसे आपपर इतना असर पड़ता है । हमारे भगवान्‌ तो सब देश, काल, वस्तु आदिमें हैं; अतः जो श्रद्धापूर्वक मूर्तिमें भगवान्‌का पूजन करता है, उससे क्या भगवान्‌ प्रसन्न नहीं होंगे ? मैं मूर्तिमें भगवान्‌का पूजन करता हूँ तो यह भगवान्‌का आदर हुआ या निरादर ? हुक साहब बोले कि जाओ, अब तुम स्वतन्त्रतापूर्वक मूर्तिपूजा कर सकते हो । बाबाजी अपने स्थानपर चले गये ।

प्रश्नकुछ लोग मन्दिरमें अथवा मन्दिरके पास बैठकर मांस, मदिरा आदि निषिद्ध पदार्थोंका सेवन करते हैं, फिर भी भगवान्‌ उनको क्यों नहीं रोकते ?

उत्तरमाँ-बाप के सामने बच्चे उद्दण्डता करते हैं तो माँ-बाप उनको दण्ड नहीं देते; क्योंकि वे यही समझते हैं कि अपने ही बच्चे हैं, अनजान हैं, समझते नहीं हैं । इसी तरह भगवान्‌ भी यही समझते हैं कि ये अपने ही अनजान बच्चे हैं; अतः भगवान्‌की दृष्टि उनके आचरणोंकी तरफ जाती ही नहीं । परन्तु जो लोग मन्दिरमें निषिद्ध पदार्थोंका सेवन करते हैं, निषिद्ध आचरण करते हैं, उनको इस अपराधका दण्ड अवश्य ही भोगना पड़ेगा ।

प्रश्नपहले कबीरजी आदि कुछ सन्तोंने मूर्तिपूजाका खण्डन क्यों किया ?

उत्तरजिस समय जैसी आवश्यकता होती है, उस समय सन्त-महापुरुष प्रकट होकर वैसा ही कार्य करते हैं । जैसे, पहले शैवों और वैष्णवोंमें बहुत झगड़ा होने लगा, तब तुलसीदासजी महाराजने रामचरितमानसकी रचना की, जिससे दोनोंका झगड़ा मिट गया । गीतापर बहुत-सी टीकाएँ लिखी गयी हैं; क्योंकि समय-समयपर जैसी आवश्यकता पड़ी, महापुरुषोंके हृदयमें वैसी ही प्रेरणा हुई और उन्होंने गीतापर वैसी ही टीका लिखी । जिस समय बौद्धमत बहुत बढ़ गया था, उस समय शंकराचार्यजीने प्रकट होकर सनातनधर्मका प्रचार किया । ऐसे ही जब मुसलमानोंका राज्य था, तब वे मन्दिरोंको तोड़ते थे और मूर्तियोंको खण्डित करते थे । अतः उस समय कबीरजी आदि सन्तोंने कहा कि हमें मन्दिरोंकी, मूर्तिपूजाकी जरूरत नहीं है; क्योंकि हमारे परमात्मा केवल मन्दिरमें या मूर्तिमें ही नहीं हैं, प्रत्युत सब जगह व्यापक हैं । वास्तवमें उन सन्तोंका मूर्तिपूजाका खण्डन करनेमें तात्पर्य नहीं था, प्रत्युत लोगोंको किसी तरह परमात्मामें लगानेमें ही तात्पर्य था ।