।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
       ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीतामें मूर्तिपूजा


दूसरोंका खण्डन करनेसे हमारी हानि यह हुई कि हमने अपने इष्टका खण्डन करनेके लिये दूसरोंको निमन्त्रण दे दिया ! जैसे, हमने निराकारका खण्डन किया तो हमने अपने इष्ट (साकार)-का खण्डन करनेके लिये दूसरोंको निमन्त्रण दिया, अवकाश दिया कि अब तुम हमारे इष्टका खण्डन करो । अतः इस खण्डनसे न तो हमारेको कुछ लाभ हुआ और न दूसरोंको ही कुछ लाभ हुआ । दूसरी बात, दूसरोंका खण्डन करनेसे कल्याण होता हैयह उपाय किसीने भी नहीं लिखा । जिन लोगोंने दूसरोंका खण्डन किया है, उन्होंने भी यह नहीं कहा कि दूसरोंका खण्डन करनेसे तुम्हारा भला होगा, कल्याण होगा । अगर हम किसीके मतका, इष्टका खण्डन करेंगे तो इससे हमारा अन्तःकरण मैला होगा, खण्डनके अनुसार ही द्वेषकी वृतियाँ बनेंगी, जिससे हमारी उपासनामें बाधा लगेगी और हम अपने इष्टसे विमुख हो जायँगे । अतः मनुष्यको किसीके मतका, किसीके इष्टका खण्डन नहीं करना चाहिये, किसीको नीचा नहीं समझना चाहिये, किसीका अपमान-तिरस्कार नहीं करना चाहिये; क्योंकि सभी अपनी-अपनी रुचिके अनुसार, भाव और श्रद्धा-विश्वाससे अपने इष्टकी उपासना करते हैं । परमात्मा साधकके भावसे, प्रेमसे, श्रद्धा-विश्वाससे ही मिलते हैं । अतः अपने मतपर, इष्टपर श्रद्धा-विश्वास करके उस मतके अनुसार तत्परतासे साधनमें लग जाना चाहिये । यही परमात्माको प्राप्त करनेका मार्ग है । दूसरोंका खण्डन करना, तिरस्कार करना परमात्मप्राप्तिका साधन नहीं है, प्रत्युत पतनका साधन है ।

जिन सन्तोंने मूर्तिपूजाका खण्डन किया है, उन्होंने (मूर्तिपूजाके स्थानपर) नाम-जप, सत्संग, गुरुवाणी, भगवच्चिन्तन, ध्यान आदिपर विशेष जोर दिया है । अतः जिन लोगोंने मूर्तिपूजाका तो त्याग कर दिया, पर जो अपने मतके अनुसार नाम-जप आदिमें तत्परतासे नहीं लगे, वे तो दोनों तरफसे ही रीते रह गये ! उनसे तो मूर्तिपूजा करनेवाले ही श्रेष्ठ हुए, जो अपने मतके अनुसार साधन तो करते हैं ।

इसपर कोई यह कहे कि हमारा दूसरोंका खण्डन करनेमें तात्पर्य नहीं है, हम तो अपनी उपासनाको दृढ़ करते हैं, अपना अनन्यभाव बनाते हैं, तो इसका उत्तर यह है कि दूसरोंका खण्डन करनेसे अनन्यभाव नहीं बनता । अनन्यभाव तो यह है कि हमारे इष्टके सिवाय दूसरा कोई तत्त्व है ही नहीं । हमारे प्रभु सगुण भी हैं और निर्गुण भी । सब हमारे प्रभुके ही रूप हैं । दूसरे लोग हमारे प्रभुका चाहे दूसरा नाम रख दें, पर हैं हमारे प्रभु ही । हमारे प्रभुकी अनेक रूपोंमें तरह-तरहसे उपासना होती है । अतः जो निर्गुणको मानते हैं, वे हमारे सगुण प्रभुकी महिमा बढ़ा रहे हैं; क्योंकि हमारा सगुण ही तो वहाँ निर्गुण है । इसलिये निर्गुणकी उपासना करनेवाले हमारे आदरणीय हैं । ऐसा करनेसे ही अनन्यभाव होगा । किसीका खण्डन करना अनन्यभाव बननेका साधन नहीं है । जो मनुष्य श्रद्धा-विश्वासपूर्वक, सीधे-सरल भावसे अपने इष्टकी उपासनामें लगे हुए हैं, उनके इष्टका, उनकी उपासनाका खण्डन करनेसे उनके हृदयमें ठेस पहुँचेगी, उनको दुःख होगा तो खण्डन करनेवालेको बड़ा भारी पाप लगेगा, जिससे उसकी उपासना सिद्ध नहीं होगी ।