।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
  भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीतामें स्वाभाविक और

नये परिवर्तनका वर्णन



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प्रकृतौ जायते यत्तत्  सहजं परिवर्तनम् ।

मनुष्यः  कुरुते   यत्तन्नूतनं  परिवर्तनम् ॥

प्रकृति और प्रकृतिके कार्य संसारमें बढ़ना-घटना आदि जो कुछ परिवर्तन हो रहा है, वहस्वाभाविक परिवर्तन’ है; और मनुष्य जो नये कर्म करता है, वहनया परिवर्तन’ है ।

स्वाभाविक परिवर्तन निरन्तर होता ही रहता है । यह परिवर्तन मनुष्य, देवता, भूत-प्रेत, गन्धर्व, यक्ष आदिके शरीरोंमें तथा सूर्य, चन्द्र, तारे, नक्षत्र, वृक्ष, लता, जन्तु आदिमें और पृथ्वी, समुद्र, पहाड़ आदिमें भी होता रहता है । इसी स्वाभाविक परिवर्तनको कहीं प्रकृतिमें होनेवाला कहा है (१३ । २९) और कहीं गुणोंमें होनेवाला कहा है (३ । २७) । तात्पर्य है कि त्रिलोकीके स्थावर-जंगम प्राणियोंके शरीरोंमें तथा जड़ पदार्थोंमें जो कुछ परिवर्तन हो रहा है, वह स्वाभाविक परिवर्तन है ।

मनुष्यका शरीर जन्मता है, बचपनसे युवा होता है, युवासे वृद्ध होता है और फिर मर जाता है (२ । १३)‒यह स्वाभाविक परिवर्तन होते हुए भी मनुष्यमें नया परिवर्तन भी होता है । जैसे, मनुष्य सात्त्विक संग, स्वाध्याय, जप, ध्यान आदि करता है तो उसकी गति सात्त्विकताकी तरफ; राजस संग, स्वाध्याय आदि करता है तो उसकी गति राजसकी तरफ; और तामस संग, स्वाध्याय आदि करता है तो उसकी गति तामसकी तरफ हो जाती है । मरनेके बाद सात्त्विक मनुष्य ऊर्ध्वगतिमें, राजस मनुष्य मध्यगतिमें और तामस पुरुष अधोगतिमें जाते हैं (१४ । १८) ।

नया परिवर्तन पशु-पक्षी आदिमें भी देखनेमें आता है; जैसे‒शिक्षा देनेपर बन्दर भी सैनिकका काम करने लगता है, साइकिल चलाने लगता है आदि-आदि; परन्तु जिससे कल्याण हो जाय, ऐसा पारमार्थिक परिवर्तन उसमें नहीं होता । कारण कि वह भोगयोनि है और उसमें जो कुछ होता है, वह सब भोगके लिये ही होता है । जैसे, सिंह किसी पशुको मारकर खा जाता है तो उसको पाप नहीं लगता; क्योंकि उसमें सब भोग-ही-भोग है । अतः पशु, पक्षी आदि योनियोंमें नया कर्म नहीं बनता । मनुष्ययोनि कर्मयोनि है; अतः मनुष्य नया कर्म (नया परिवर्तन) कर सकता है ।

मनुष्यके जो जन्मारम्भक कर्म हैं, वे पुराने कर्म हैं । उन कर्मोंसे जो परिवर्तन होता है, उससे भी विलक्षण परिवर्तन नये कर्मोंसे होता है । ऐसा देखनेमें आता है कि उत्तम जातिमें जन्म लेनेपर भी अच्छा संग, शिक्षा आदि न मिलनेसे मनुष्य दुराचारी हो जाता है । अतः जन्मारम्भक (पुराने) कर्म अच्छे होनेपर भी नये कर्म अच्छे न होनेसे मनुष्यका पतन हो जाता है । इसके विपरीत नीच जातिमें जन्म लेनेपर भी अच्छा संग, शिक्षा आदि मिलनेसे मनुष्य सदाचारी हो जाता है, सन्त-महात्मा बन जाता है, दूसरोंके लिये आदर्श हो जाता है । अतः जन्मारम्भक कर्म अच्छे न होनेपर भी नये कर्म अच्छे होनेसे मनुष्यमें बहुत विलक्षणता आ जाती है ।

गीताने स्थितप्रज्ञ, गुणातीत और भक्तोंके लक्षणोंके रूपमें नये परिवर्तनका ही वर्णन किया है । मनुष्य नया परिवर्तन इतना कर सकता है कि जिसका कोई पार नहीं है । नये परिवर्तनसे मनुष्य भगवान्‌का भी आदरणीय हो सकता है । इस नये परिवर्तनसे भक्तोंका शरीर चिन्मय हो जाता है; जैसे तुकारामजी महाराज सशरीर वैकुण्ठ चले गये, कबीरजीका शरीर पुष्पोंमें परिणत हो गया, मीराबाईका शरीर भगवान्‌के विग्रहमें समा गया । जनाबाई और फूलीबाईकी थेपड़ियोंसे नाम-ध्वनि निकलती थी । तुकारामजीके चरणचिह्नोंसे विट्ठल नामकी ध्वनि निकलती थी । मरनेके बाद भी चोखामेलाकी हड्डियोंसे विट्ठल नामकी ध्वनि सुनाई पड़ती थी ।

भगवान्‌ने गीतामें भक्तोंके चार प्रकार बताये हैंअर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और प्रेमी (७ । १६) । ये चार प्रकार जन्मसे नहीं हैं, प्रत्युत कर्मसे हैं । इनमें पुराने कर्म नहीं हैं, प्रत्युत नये कर्म हैं, नया परिवर्तन है । इस नये परिवर्तनका अवसर इस मनुष्यशरीरमें ही है, अन्य शरीरोंमें नहीं । कहीं-कहीं अपवादरूपसे पशु-पक्षी आदिमें भी नया परिवर्तन देखनेमें आता है ।

बालकका पालन-पोषण और रक्षण करना‒यह माँके द्वारा किया गया नया परिवर्तन (कर्म) है; परन्तु बालकका बढ़ना नया परिवर्तन नहीं है । कारण कि माँने बालकको बड़ा नहीं किया, प्रत्युत वह स्वाभाविक बड़ा हो गया । भोजन करना नया परिवर्तन है, पर भोजनका पचना स्वाभाविक परिवर्तन है । दवाई लेना नया परिवर्तन है, पर दवाईसे रोग शान्त हो जाना स्वाभाविक परिवर्तन है । ऐसे ही शरीरका जन्मना, बढ़ना आदि तो स्वतः-स्वाभाविक होता है, पर मनुष्यशरीरमें शुभाशुभ कर्म करके स्वर्ग, नरक अथवा चौरासी लाख योनियोंमें जाना, भगवद्भजन करना, प्राणियोंकी सेवा करना, अपने कर्तव्यका पालन करना, अपने विवेकका आदर करना आदि नया परिवर्तन (कर्म) है । इस नये परिवर्तनके कारण ही पापी-से-पापी, दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी ज्ञान प्राप्त करके अपना उद्धार कर सकता है (४ । ३६), भगवान्‌को प्राप्त करनेका एक निश्चय करके अनन्यभक्त बन सकता है तथा सदा रहनेवाली शान्तिको प्राप्त कर सकता है (९ । ३०-३१), और केवल लोकसंग्रहके लिये, कर्तव्य-परम्पराको सुरक्षित रखनेके लिये, केवल दूसरोंके हितके लिये कर्तव्य-कर्म करके सम्पूर्ण पापोंको नष्ट कर सकता है (४ । २३) ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !