।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
     श्रावण शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०७९, रविवार

गीतामें देवताओंकी उपासना



ये नराः  कामनायुक्ता   यजन्त  इह  देवताः ।

दुःखं हि यान्ति ते सर्वे जन्ममृत्युजरात्मकम् ॥

देवता दो प्रकारके होते हैं‒‘आजान-देवता’ और ‘मर्त्यदेवता’ । आजान-देवता’ वे कहलाते हैंजो कल्पके आदिसे हैं और कल्पके अन्ततक रहते हैं तथा मर्त्यदेवता’ वे कहलाते हैंजो मनुष्यशरीरमें पुण्यकर्म करके स्वर्ग आदि लोकोंको प्राप्त होते हैं और पुण्यकर्मोंके अनुसार न्यूनाधिकरूपसे स्वर्गमें रहते हैं ।

मनुष्योंकी अपेक्षा देवताओंकी योनि ऊँची मानी जाती हैदेवताओंके लोक ऊँचे माने जाते हैंउनके भोगशरीरसुख-सामग्री ऊँची मानी जाती है । उनकी अपेक्षा मनुष्यलोक और मनुष्यलोकके भोगशरीरसुख-सामग्री नीची मानी जाती है । देवताओंके लोकभोगशरीर आदि सभी दिव्य होते हैंदिव्यान्दिवि देवभोगान् (९ । २०)और उनके लोकभोगइन्द्रियोंकी शक्तिआयु आदि सभी विशाल होते हैंस्वर्गलोकं विशालम् (९ । २१)परन्तु उनके लोक, भोगशरीरइन्द्रियों आदिमें जो कुछ दिव्यता[*]विलक्षणताविशालता होती हैवह सब पुण्यकर्मोंके कारण ही होती है ।

जो आदमी संसारमें रचे-पचे हैंजो उच्छृंखलतापूर्वक आचरण करते हैंउनकी अपेक्षा श्रद्धा-भक्तिसे देवताओंकी उपासना करनेवाले श्रेष्ठ हैं । कारण कि वे वेदोंमेंशास्त्रोंमें तथा वैदिक मन्त्रोंमेंयज्ञ-याग आदिके अनुष्ठानमें श्रद्धा रखते हैं और सकामभावसे तत्परतापूर्वक सांगोपांग यज्ञादि शुभ कर्मोंका अनुष्ठान करते हैं । उनमें यहाँके भोगोंसे कुछ संयम भी होता है और उनका अन्तःकरण भी कुछ शुद्ध होता है । ऐसे लोग शुभ कर्मोंके प्रभावसे देवताओंके लोकोंमें जाकर वहाँके दिव्य भोग भोगते हैं और स्वर्गके प्रापक पुण्यके समाप्त होनेपर फिर मृत्युलोकमें आकर जन्म लेते हैं । ऐसे स्वर्गसे लौटकर आये मनुष्योंके स्वभावमें स्वाभाविक ही शुद्धि रहती है । उनमें स्वाभाविक ही दान देने आदिकी तरफ प्रवृत्ति रहती है । परन्तु निष्कामभावसे अपने कर्तव्यका पालन करनेसे तथा भगवद्‌बुद्धिसे देवताओंका पूजन करनेसे मनुष्यकी जैसी शुद्धि होती हैवैसी शुद्धि सकामभावसे देवताओंका पूजन-आराधन करनेवालोंकी नहीं होतीक्योंकि उनमें स्वर्ग आदि लोकोंकी तथा वहाँके भोगोंकी प्रबल कामना रहती है ।

यद्यपि इस मनुष्यलोकमें कर्मोंकी सिद्धि चाहते हुए देवताओंकी उपासना करनेवालोंको कर्मजन्य सिद्धि बहुत जल्दी मिलती है । (४ । १२), तथापि उस उपासनाका फल अन्तवाला ही होता हैअविनाशी नहीं होता (७ । २३) । कारण कि देवतालोग अपनी उपासना करनेवालोंपर प्रसन्‍न हो जायँगे तो वे अधिक-से-अधिक उनको अपने लोकोंमें ले जा सकते हैंपर उनका कल्याण नहीं कर सकते और जबतक उनके पुण्य रहते हैंतभीतक वे उनको अपने लोकोंमें रहने देते हैं । पुण्य समाप्त होते ही वे उनको वहाँसे ढकेल देते हैं । जहाँतकका टिकट होता हैवहाँतक ही रेलमें बैठ सकते हैंऐसे ही जितने पुण्य होते हैंउतने ही समयतक वे स्वर्गमें रह सकते हैं । पुण्य समाप्त होनेपर उन्हें वहाँसे नीचे (मनुष्यलोकमें) आना ही पड़ता है (९ । २१) ।



[*] देवताओंकी दिव्यता भगवान्‌की दिव्यताके समान नहीं है । भगवान्‌की दिव्यता तो अलौकिक हैचिन्मय हैपर देवताओंकी दिव्यता लौकिक हैप्राकृत है और नष्ट होनेवाली है ।