।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
      पौष शुक्ल दशमी , वि.सं.-२०७९, रविवार

गीतामें आयेअवशः पदका तात्पर्य



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सम्बन्धः प्रकृतेर्यावत्तावज्जीवोऽवशो भवेत् ।

प्रकृतेर्वशतात्यागे   जीवस्तु   स्ववशस्तदा ॥

शरीर, इन्द्रियों आदिसे सुख लेनेकी जो आदत पड़ी हुई है उसको स्वभाव कहते हैं । इस स्वभावके परवश, अवश, अधीन हुए प्राणियोंसे प्रकृतिजन्य गुण कर्म कराते हैं‒कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः’ (३ । ५)  यह स्वभावकी अवशता है ।

श्रीमानोंकी घरमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट मनुष्य भोगोंकी बहुलताके कारण भोगोंके परवश हो जाता है, भोगोंकी तरफ खिंच जाता है, भोगोंके परवश होनेपर भी पूर्वजन्मकृत अभ्यासके कारण वह पुनः साधनमें खिंच जाता है‒‘पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः’ (६ । ४४) । यह भोगोंकी अवशता है ।

एक हजार चतुर्युगी बीतनेपर जब ब्रह्माजीकी रातका आरम्भ होता है, तब प्रलय होता है । उस प्रलयमें प्रकृतिके, गुणोंके अथवा स्वभावके परवश हुए जीव ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीरमें लीन हो जाते हैं । फिर जब ब्रह्माजीके दिनका आरम्भ होता है, तब सर्ग होता है । उस सर्गमें सभी परवश जीव ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीरसे पैदा होते हैं‒‘रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे’ (८ । १९) । यह प्रलय और सर्गकी अवशता है ।

ब्रह्माजीके सौ वर्ष पूरे होनेपर जब महाप्रलय होता है, तब सम्पूर्ण जीव प्रकृतिमें लीन हो जाते हैं । जब प्रकृतिमें लीन उन जीवोंके कर्म परिपक्‍व हो जाते हैं, तब भगवान्‌ प्रकृतिको अपने वशमें करके महासर्गके आदिमें उन परवश हुए जीवोंकी रचना कर देते हैं‒भूतग्राममिमं कृत्स्‍नमवशं प्रकृतेर्वशात्’ (९ । ८) । यह महाप्रलय और महासर्गकी अवशता है ।

पूर्वकर्मोंके अनुसार यह जीव जिस वर्णमें जन्मा है और वहाँपर माता-पिताके रज-वीर्यके अनुसार इसका जैसा स्वभाव बना हुआ है, उस स्वभावके यह परवश रहता है और उसके अनुसार ही यह कर्म करनेमें बाध्य होता है‒‘कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्’ (१८ । ६०) । यह स्वभावकी अवशता है ।

स्वभाव बनता है वृत्तियोंसे, वृत्तियाँ बनती हैं गुणोंसे और गुण पैदा होते है प्रकृतिसे । अतः चाहे स्वभावके परवश कहो, चाहे गुणोंके परवश कहो और चाहे प्रकतिके परवश कहो, एक ही बात है । वास्तवमें सबके मूलमें प्रकृतिजन्य पदार्थोंकी परवशता ही है । इसी परवशतासे सभी परवशताएँ पैदा होती हैं । अतः प्रकृतिजन्य पदार्थोंकी परवशताको ही कहीं कालकी, कहीं स्वभावकी, कहीं कर्मकी और कहीं गुणोंकी परवशता कह दिया है ।

तात्पर्य है कि यह जीव जबतक प्रकृति और उसके गुणोंसे अतीत नहीं होता, परमात्माकी प्राप्‍ति नहीं कर लेता, भगवान्‌की शरण नहीं लेता, तबतक यह गुण, काल, भोग और स्वभावके अवश (परवश) ही रहता है अर्थात् यह जीव जबतक प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध मानता है, प्रकृतिमें स्थित रहता है, तबतक यह आसक्तिके कारण कभी गुणोंके, कभी कालके, कभी भोगोंके और कभी स्वभावके परवश होता रहता है, कभी स्ववश (स्वतन्त्र) नहीं रहता । इनके सिवाय यह परिस्थिति, व्यक्ति, स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदिके भी परवश होता रहता है । परन्तु जब यह गुणोंसे अतीत अपने स्वरूपका अथवा परमात्मतत्त्वका अनुभव कर लेता है, तो फिर इसकी यह परवशता नहीं रहती और यह स्वतःसिद्ध स्वतन्त्रताको प्राप्‍त हो जाता है ।

यहाँ यह शंका होती है कि ज्ञानी तो स्ववश होता है पर भक्त स्ववश नहीं होता, प्रत्युत भगवान्‌के परवश होता है । इसका समाधान यह है कि भगवान्‌पर’ नहीं है, प्रत्युत स्व’ है, स्वकीय हैं, आत्मीय हैं । अतः जो स्वकीय है, उसके परवश होना वास्तवमें स्ववश होना ही है । भक्तकी यह परवशता ज्ञानीकी स्ववशतासे भी श्रेष्ठ है । कारण कि ज्ञानीमें तो बहुत दूरतक सूक्ष्म अहंकार (व्यक्तित्व) रहनेकी सम्भावना रहती है, पर भक्तमें आरम्भसे ही अहंकार नहीं रहता । भगवान्‌पर ही निर्भर रहनेसे भक्तमें राग-द्वेष आदि नहीं होते । भगवान्‌ स्वयं उसको ज्ञान देते हैं (१० । ११) और उसका उद्धार भी स्वयं कर देते हैं (१२ । ७) ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !