।। श्रीहरिः ।।

    


  आजकी शुभ तिथि–
      माघ कृष्ण पंचमी , वि.सं.-२०७९, गुरुवार

गीता-पाठकी विधियाँ



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सम्पुट न लगाकर पाठ करनाबिना सम्पुटका पाठ कहलाता है । मनुष्य प्रतिदिन बिना सम्पुट अठारह अध्यायोंका पाठ करे अथवा नौ-नौ अध्याय करके दो दिनमें अथवा छः-छः अध्याय करके तीन दिनमें अथवा तीन-तीन अध्याय करके छः दिनमें अथवा दो-दो अध्याय करके नौ दिनमें गीताका पाठ करे । यदि पंद्रह दिनमें गीताका पाठ पूरा करना हो तो प्रतिपदासे एकादशीतक एक-एक अध्यायका, द्वादशीको बारहवें और तेरहवें अध्यायका, त्रयोदशीको चौदहवें और पंद्रहवें अध्यायका, चतुर्दशीको सोलहवें और सत्रहवें अध्यायका तथा अमावास्या और पूर्णिमाको अठारहवें अध्यायका पाठ करे । किसी पक्षमें तिथि घटती हो, तो सातवें और आठवें अध्यायका एक साथ पाठ कर लें । इसी तरह किसी पक्षमें तिथि बढ़ती हो, तो सोलहवें और सत्रहवें इन दोनों अध्यायोंका अलग-अलग दो दिनमें पाठ कर ले ।

यदि पूरी गीता कण्ठस्थ हो तो क्रमशः प्रत्येक अध्यायके पहले श्‍लोकका पाठ करते हुए पूरे अठारहों अध्यायोंके पहले श्‍लोकोंका पाठ करे । फिर क्रमशः अठारहों अध्यायोंके दूसरे श्‍लोकोंका पाठ करे । इस प्रकार पूरी गीताका सीधा पाठ करे । इसके बाद अठारहवें अध्यायका अन्तिम श्‍लोक, फिर सत्रहवें अध्यायका अन्तिम श्‍लोक‒इस तरह प्रत्येक अध्यायके अन्तिम श्‍लोकका पाठ करे । फिर अठारहवें अध्यायका उपान्त्य (अन्तिम श्‍लोकसे पीछेका) श्‍लोक, फिर सत्रहवें अध्यायका उपान्त्य श्‍लोक‒इस तरह प्रत्येक अध्यायके उपान्त्य श्‍लोकका पाठ करे । इस प्रकार पूरी गीताका उलटा पाठ करे ।

संस्कृत भाषाका शुद्ध उच्‍चारण करनेकी विधि

शब्दका जैसा रूप है, उसको बीचमेंसे तोड़कर न पढ़े एवं लघु और गुरुका, विसर्गों और अनुस्वरोंका तथा श, , स का लक्ष्य रख कर पढे़ तो संस्कृत भाषाका उच्‍चारण शुद्ध हो जाता है ।

१‒उच्‍चारणमें इ, , ऋ‒इन तीन अक्षरोंके लघु और गुरुका ध्यान विशेष रखना चाहिये । क्योंकि अ और आ का उच्‍चारण-भेद तो स्पष्ट स्वतः ही हो जाता है और लृ का उच्‍चारण बहुत कम आता है तथा वह दीर्घ होता ही नहीं । ऐसे ही ए, ऐ, ओ, औ‒ये अक्षर लघु होते ही नहीं ।

२-संयोगके आदिका, विसर्गोंके आदिका स्वर गुरु हो जाता है; क्योंकि संयोगका उच्‍चारण करनेसे पिछले स्वरपर जोर लगेगा ही तथा विसर्ग जो कि आधे ह’ की तरह बोले जाते हैं, उनके उच्‍चारणसे भी स्वरपर जोर लगता ही है । जिससे पीछेवाला स्वर गुरु हो जाता है । व्यंजनोंका उच्‍चारण बिना स्वरके सुखपूर्वक होता नहीं और व्यंजनके आगे दूसरा व्यंजन आ जानेसे पीछेवाले स्वरके अधीन ही उसका उच्‍चारण रहेगा; इसलिये पीछेवाला स्वर गुरु होता है ।

३‒अनुस्वार और विसर्ग किसी-न-किसी स्वरके ही आश्रित होते हैं; स्वरके बाद उच्‍चारित होनेसे ही उनकी अनुस्वार और विसर्ग संज्ञा होती है । अतः इनका उच्‍चारण करनेसे स्वाभाविक ही पिछला स्वर गुरु हो जाता है । यहाँ अनुस्वारके विषयमें यह ध्यान देनेकी बात है कि उसका उच्‍चारण आगेवाले व्यंजनके अनुरूप होता है अर्थात् आगेका व्यंजन जिस वर्गका होगा, उस वर्गके पंचम अक्षरके अनुसार अनुस्वारका उच्‍चारण होगा । जैसे क, , ग, घ, , परे होनेपर अनुस्वारका उच्‍चारणङ् की तरह, , , , झ, ञ परे होनेपर ‘ञ्’ की तरह, ट, ठ, , , ण परे होनेपरण्’ की तरह, , , , , न परे होनेपरन्’ की तरह, , , ब, भ, म परे होनेपरम्’ की तरह करना चाहिये । यह नियम केवल इन पचीस अक्षरोंके लिये ही है । य, र, , , , ष, स, ह‒ये आठ अक्षर परे होनेपर शुद्ध अनुस्वारका ही उच्‍चारण करना चाहिये जो कि केवल नासिकासे होता है ।

४‒श, , स‒इन तीनोंका उच्‍चारण-भेद समझते हुए इनको निम्‍नलिखित रीतिसे पढ़ना चाहिये । मूर्धासे ऊँचे तालुमें जीभ लगाकर का उच्‍चारण करनेसे तालव्य शकारका ठीक उच्‍चारण होगा तथा उससे दाँतोंकी तरफ थोड़ा नीचे लगाकरका उच्‍चारण करनेसे मूर्धन्य षकारका ठीक उच्‍चारण होगा एवं दोनों दाँतोंको मिलाकर स’ का उच्‍चारण करनेसे स्वाभाविक ही जीभ दाँतोंके लगेगी, तब दन्त्य सकारका ठीक उच्‍चारण होगा ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !