।। श्रीहरिः ।।

   


  आजकी शुभ तिथि–
        माघ शुक्ल पंचमी , वि.सं.-२०७९, गुरुवार

गीताका परिमाण

और पूर्ण शरणागति





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धृतराष्ट्रका एक श्‍लोक

गीताकी प्रचलित प्रतिमें धृतराष्ट्रका एक श्‍लोक ही है और महाभारतोक्‍त गीता-परिमाणमें भी धृतराष्ट्रका एक ही श्‍लोक बताया गया है‒धृतराष्ट्र: श्‍लोकमेकम् ।’ अतः इस श्‍लोकके परिमाणमें कोई मतभेद नहीं है ।

संजय उवाच’ की तरह धृतराष्ट्र उवाच’ को भी अलगसे श्‍लोक न मानकर धृतराष्ट्रके श्‍लोकमें ही लिया गया है । धृतराष्ट्र उवाच और संजय उवाच’ दोनों ही महाभारतके वक्ता महर्षि वैशम्पायनजीके वचनोंके अन्तर्गत हैं ।

यह शंका भी हो सकती है कि धृतराष्ट्र-कथित श्‍लोकको गीतामें क्यों सम्मिलित किया गया है ? इसके समाधानमें पहली बात तो यह है कि धृतराष्ट्रका मूल प्रश्‍न (१ । १) ही गीताके प्राकट्यमें हेतु है । धृतराष्ट्र युद्ध-स्थलमें हुई सम्पूर्ण घटनाओंको विस्तारसे सुननेके लिये प्रश्‍न करते हैं । उसके उत्तरमें महर्षि वेदव्यासजीके कृपापात्र संजय श्रीकृष्णार्जुनसंवादरूप गीता-शास्‍त्रको (जो युद्धस्थलमें सबसे पहली घटना थी) वेदव्यासजीके विशेष कृपापात्र राजा धृतराष्ट्रको सुनाते हैं[*] । अतः गीताके प्राकट्यमें मूल प्रश्‍न होनेसे ही धृतराष्ट्रका यह श्‍लोक गीतामें सम्मिलित किया गया है ।

दूसरी बात, जैसे पहले अध्यायमें अर्जुनका विषाद भी भगवान्‌के साथ सम्बन्ध जोड़नेवाला तथा कल्याणकी ओर ले जानेवाला होनेसे योग’ (अर्जुनविषादयोग) हो गया, ऐसे ही धृतराष्ट्रका प्रश्‍न भी भगवद्‌वाणीके प्राकट्यमें हेतु होनेके कारण भगवद्‌गीतामें सम्मिलित हो गया ।

तात्पर्य

यदि इस लेखको गहराईसे, मनन-विचारपूर्वक और भगवान्‌में श्रद्धा रखते हुए पढ़ा जाय तो महाभारतोक्‍त गीता-परिमाणकी संगति ठीक बैठ जाती है और इस विषयमें पैदा होनेवाली सभी शंकाओंका समाधान भी हो जाता है । इससे सिद्ध होता है कि महर्षि वेदव्यासरचित महाभारतमें गीताका जो परिमाण बताया गया है, वह यथार्थ ही है । अतः पाठकी दृष्टिसे तो गीताका प्रचलित पाठ ही उपयुक्त है और परिमाणकी दृष्टिसे इस लेखमें बतायी पद्धतिके अनुसार महाभारतोक्‍त गीता-परिमाण ही उपयुक्त है ।[†]

गीता-परिमाणकी संगति ठीक-ठीक बैठ जानेसे यह तात्पर्य निकलता है कि जब मनुष्य संसारसे हटकर अपना कल्याण चाहता है और वचनमात्रसे भी भगवान्‌की शरण हो जाता है, तब (भगवत्परायण होनेसे) उसका कल्याण होना निश्‍चित है । पूर्ण शरणागत होनेपर तो एक भगवान्‌ ही रह जाते हैं अर्थात् भक्त और भगवान्‌में कोई भेद नहीं रहता ।

गीता-परिमाणके अनुसार तालिका

अध्याय

धृतराष्ट्र

संजय

अर्जुन

श्रीभगवान्

पूर्णसंख्या

४६

४७

(२ । ५४)

६७

७६

४४

४७

४४

४५

३०

३१

४७

५२

३१

३१

२८

३०

३५

३५

१०

३८

४५

११

३३

२२

६३

१२

२१

२२

१३

३५

३५

१४

२९

३०

१५

२१

२१

१६

२५

२५

१७

२९

३०

१८

७४

८०

योग

६७

५७

६२०

७४५

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !



[*] महाभारत देखनेसे पता चलता है कि महर्षि वेदव्यासजीकी धृतराष्ट्रपर बड़ी कृपा थी । जब दोनों ओरसे महाभारत-युद्धकी पूरी तैयारी हो गयी, तब वेदव्यासजीने धृतराष्ट्रके समीप जाकर उनसे कहा कि महाभारतका युद्ध अनिवार्य है । यह होनी है, जो अवश्य होगी । यदि इस घोर संग्रामको देखना चाहो तो मैं तुम्हें दिव्यदृष्टि प्रदान कर सकता हूँ’ (भीष्म २ । ४६) । धृतराष्ट्रने कहा कि ‘ब्रह्मर्षिश्रेष्ठ ! मैं जीवनभर अन्धा रहा, अब मैं अपने ही कुलका संहार अपने नेत्रोंसे देखना नहीं चाहता । हाँ, युद्धकी घटनाओंको भलीभाँति सुनना अवश्य चाहता हूँ’ (भीष्म २ । ७) । वेदव्यासजीको तो पता ही था कि युद्धसे पहले भगवान्‌ श्रीकृष्ण अर्जुनको गीताका महान् उपदेश देंगे । अतः उस दिव्य गीतोपदेशको धृतराष्ट्रके कल्याणके लिये सुनानेके लिये उन्होंने उनके मन्त्री महात्मा संजयको दिव्यदृष्टि प्रदान की और धृतराष्ट्रसे कहा कि संजय तुम्हें युद्धका सारा वृत्तान्त सुनायेगा’ । यह दिव्य चक्षुवाला हो जायगा और युद्धकी समस्त घटनाओंको प्रत्यक्ष देख, सुन और जान सकेगा । सामने या पीछे, दिनमें या रातमें, गुप्त या प्रकट, क्रियारूपमें परिणत या सैनिकोंके मनमें आयी कोई भी बात इससे छिपी न रह सकेगी(भीष्म २ । ९११) ।


[†] गुजराती एवं बँगला भाषामें प्रकाशित ऐसी गीता भी हमारे देखनेमें आयी है, जिसमें गीताके ७४५ श्‍लोक दिये गये हैं । परन्तु उनमें प्रचलित पाठसे अधिक जो ४५ श्‍लोक लिये गये हैं, वे गीताके भाव एवं प्रवाह (प्रसंग)-के अनुसार ठीक नहीं बैठते तथा उनकी रचना भी वैष्णव सम्प्रदायके किसी व्यक्तिके द्वारा की गयी प्रतीत होती है । अतः ऊपरसे जोड़े गये वे ४५ श्‍लोक हमें ठीक जँचे नहीं ।