।। श्रीहरिः ।।

     


  आजकी शुभ तिथि–
      माघ शुक्ल सप्तमी , वि.सं.-२०७९, शनिवार

सब साधनोंका सार



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मैं शरीर नहीं हूँ

सर्वप्रथम साधकको यह बात अच्छी तरहसे समझ लेनी चाहिये कि मैं चिन्मय सत्तारूप हूँ, शरीररूप नहीं हूँ । हम कहते हैं कि बचपनमें मैं जो था, वही मैं आज हूँ । शरीरको देखें तो बचपनसे लेकर आजतक हमारा शरीर इतना बदल गया कि उसको पहचान भी नहीं सकते, फिर भी हम वही हैं‒यह हमारा अनुभव कहता है । बचपनमें मैं खेलता-कूदता था, बादमें मैं पढ़ता था, आज मैं नौकरी-धन्धा करता हूँ । सब कुछ बदल गया, पर मैं वही हूँ । कारण कि शरीर एक क्षण भी ज्यों-का-त्यों नहीं रहता, निरन्तर बदलता रहता है । तात्पर्य यह हुआ कि जो बदलता है, वह हमारा स्वरूप नहीं है । जो नहीं बदलता, वही हमारा स्वरूप है ।

हमने अबतक असंख्य शरीर धारण किये, पर सब शरीर छूट गये, हम वही रहे । मृत्युकालमें भी शरीर तो यहीं छूट जायगा, पर अन्य योनियोंमें हम जायँगे, स्वर्ग-नरक आदि लोकोंमें हम जायँगे, मुक्ति हमारी होगी, भगवान्‌के धाममें हम जायँगे । तात्पर्य है कि हमारी सत्ता (होनापन) शरीरके अधीन नहीं है । शरीरके बढ़ने-घटनेपर, कमजोर-बलवान् होनेपर, बालक-बूढ़ा होनेपर अथवा रहने-न-रहनेपर हमारी सत्तामें कोई फर्क नहीं पड़ता । जैसे हम किसी मकानमें रहते हैं तो हम मकान नहीं हो जाते । मकान अलग है, हम अलग हैं । मकान वहीं रहता है, हम उसको छोड़कर चले जाते हैं । ऐसे ही शरीर यहीं रहता है, हम उसको छोड़कर चले जाते हैं । शरीर तो मिट्टी हो जाता है, पर हम मिट्टी नहीं होते । हमारा स्वरूप गीताने इस प्रकार बताया है‒

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि    नैनं दहति पावकः ।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो    न शोषयति मारुतः ॥

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।

नित्यः सर्वगतः   स्थाणुरचलोऽयं   सनातनः ॥

(गीता २/२३-२४)

‘शस्‍त्र इस शरीरीको काट नहीं सकते, अग्‍नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती । यह शरीरी काटा नहीं जा सकता, यह जलाया नहीं जा सकता, यह गीला नहीं किया जा सकता और यह सुखाया भी नहीं जा सकता । कारण कि यह नित्य रहनेवाला, सबमें परिपूर्ण, अचल, स्थिर स्वभाववाला और अनादि है ।’

तात्पर्य है कि शरीरका विभाग ही अलग है और न बदलनेवाले शरीरी (स्वरूप)-का विभाग ही अलग है । हमारा स्वरूप किसी शरीरसे लिप्त नहीं है, इसलिये उसको गीतामें भगवान्‌ने सर्वव्यापी कहा है‒‘येन सर्वमिदं ततम्’ (२/१७), ‘सर्वगतः’ (२/२४) । तात्पर्य है कि स्वरूप एक शरीरमें सीमित नहीं है, प्रत्युत सर्वव्यापी है ।

शरीर पृथ्वीपर ही (माँके पेटमें) बनता है, पृथ्वीपर घूमता-फिरता है और मरकर पृथ्वीमें ही लीन हो जाता है । इसकी तीन गतियाँ बतायी गयी हैं‒इसको जला देंगे तो भस्म बन जायगी, पृथ्वीमें गाड़ देंगे तो मिट्टी बन जायगी और जानवर खा लेंगे तो विष्ठा बन जायगी । इसलिये शरीर मुख्य नहीं है, प्रत्युत हमारा स्वरूप मुख्य है ।

यद्यपि होनापन (सत्ता) आत्माका ही है, शरीरका नहीं, तथापि साधकसे भूल यह होती है कि वह पहले शरीरको देखकर फिर उसमें आत्माको देखता है, पहले आकृतिको देखकर फिर भावको देखता है । ऊपर लगायी हुई पालिश कबतक टिकेगी ? साधकको विचार करना चाहिये कि आत्मा पहले थी या शरीर पहले था ? विचार करनेपर सिद्ध होता है कि आत्मा पहले है और शरीर पीछे है । भाव पहले है और आकृति पीछे है । इसलिये हमारी दृष्टि पहले भावरूप आत्मा (स्वरूप)-की तरफ जानी चाहिये, शरीरकी तरफ नहीं ।