Listen ज्ञानयोगका मार्ग मनुष्यमात्रको ‘मैं हूँ’‒इस रूपमें अपनी एक सत्ताका अनुभव
होता है । इस सत्तामें अहम् (‘मैं’) मिला हुआ होनेसे ही ‘हूँ’ के रूपमें अपनी
एकदेशीय सत्ता अनुभवमें आती है । यदि अहम् न रहे तो ‘है’ के रूपमें सर्वदेशीय
सत्ता ही अनुभवमें आयेगी । वह सर्वदेशीय सत्ता ही
मनुष्यका वास्तविक स्वरूप है । उस सत्तामें अहम् (जड़ता) नहीं है । जब
मनुष्य अहम्को स्वीकार करता है, तब वह बँध जाता है और जब सत्ता (‘है’) को स्वीकार
करता है, तब वह मुक्त हो जाता है । संसारका स्वरूप है‒क्रिया और पदार्थ । क्रिया और पदार्थ‒दोनों ही आदि-अन्तवाले (अनित्य) हैं ।
प्रत्येक क्रियाका आरम्भ और अन्त होता है । प्रत्येक पदार्थकी उत्पत्ति और विनाश
होता है । मात्र जड़ वस्तु मिली है और प्रतिक्षण बिछुड़ रही है । जो मिली है और बिछुड़ जायगी, उसका उपयोग केवल संसारकी सेवामें
ही हो सकता है । अपने लिये उसका कोई उपयोग नहीं है । कारण कि मिली हुई और
बिछुड़नेवाली वस्तु अपनी नहीं होती‒यह सिद्धान्त है । जो वस्तु अपनी नहीं
होती, वह अपने लिये भी नहीं होती । अपनी वस्तु वह होती
है, जिसपर हमारा पूरा अधिकार हो और अपने लिये वस्तु वह होती है, जिसको पानेके बाद
फिर कुछ भी पाना शेष नहीं रहे । परन्तु यह हम सबका अनुभव है कि शरीरादि
मिली हुई वस्तुओंपर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं चलता । हम अपनी इच्छाके अनुसार
उनको प्राप्त नहीं कर सकते, उनको रख नहीं सकते, उनको बना नहीं सकते, उनमें
परिवर्तन नहीं कर सकते । उनकी प्राप्तिके बाद भी ‘और मिले, और मिले’ यह कामना बनी
रहती है अर्थात् अभाव बना रहता है । इस अभावकी कभी पूर्ति नहीं होती । इसलिये साधकको चाहिये कि वह इस सत्यको स्वीकार करे कि मिली हुई
और बिछुड़नेवाली वस्तु मेरी और मेरे लिये नहीं है । मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तुको अपनी और अपने लिये न
माननेसे मनुष्य निर्मम हो जाता है । निर्मम होते ही उसके द्वारा मिली हुई
वस्तुओंका सदुपयोग सुगमतासे होने लगता है । कारण कि निर्मम
हुए बिना प्राप्त वस्तुओंका सदुपयोग नहीं हो सकता । ममतावाले मनुष्यके द्वारा
प्राप्त वस्तुओंका दुरुपयोग ही होता है । भोग और संग्रह करना ही प्राप्त वस्तुओंका
दुरुपयोग है और उनको दूसरोंकी सेवामें लगाना ही उनका सदुपयोग है । प्राप्त वस्तुओंके दुरुपयोगसे
समाजमें संघर्ष पैदा होता है और सदुपयोगसे समाजमें शान्तिकी स्थापना होती है । मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तुओंको अपना और अपने लिये मानना
मनुष्यकी भूल है । जब स्वयं चेतन तथा अविनाशी है तो फिर जड़ तथा नाशवान् वस्तु
अपनी और अपने लिये कैसे हुई ? यह भूल स्वतः-स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत मनुष्यके
द्वारा उत्पन्न की हुई (कृत्रिम) है । अपने विवेकको महत्त्व न देनेसे यह भूल उत्पन्न
होती है । इस एक भूलसे फिर अनेक तरहकी भूलें उत्पन्न होती हैं । इसलिये इस मूल
भूलको मिटाना अत्यन्त आवश्यक है और इसको मिटानेकी जिम्मेवारी मनुष्यपर ही है ।
इसको मिटानेके लिये भगवान्ने मनुष्यको विवेक दिया है । जब मनुष्य अपने विवेकको
महत्त्व देकर इस भूलको मिटा देता है, तब वह निर्मम हो जाता है । निर्मम होना प्रत्येक साधकके लिये बहुत आवश्यक है; क्योंकि
ममताको मिटाये बिना साधककी उन्नति नहीं हो सकती । इतना ही नहीं, जिसमें ममता की
जाती है, वह वस्तु भी अशुद्ध हो जाती है और उसकी उन्नतिमें भी बाधा लग जाती है । ममतासे मनुष्यमें अनेक दोषोंकी उत्पत्ति होती है । कुछ लोगोंको यह शंका होती है कि
ममताके बिना हमारा शरीर कैसे चलेगा ? हम परिवार अथवा समाजकी सेवा कैसे करेंगे ?
परन्तु वास्तवमें ममताके कारण शरीर, समाज, परिवार आदिकी
सेवामें बाधा ही लगती है । निर्मम मनुष्यका शरीर-निर्वाह बहुत बढ़िया रीतिसे
होता है । निर्मम मनुष्यके द्वारा ही परिवार, समाज आदिकी वास्तविक सेवा होती है । जिसकी
अपने शरीरमें ममता है, वह परिवारकी सेवा नहीं कर सकता । जिसकी अपने परिवारमें ममता
है, वह समाजकी सेवा नहीं कर सकता । जिसकी अपने समाजमें ममता है, वह देशकी सेवा
नहीं कर सकता । जिसकी अपने देशमे ममता है, वह दुनियाकी सेवा नहीं कर सकता ।
तात्पर्य है कि ममताके कारण मनुष्यका भाव संकुचित, एकदेशीय हो जाता है । वह सेवासे
विमुख होकर स्वार्थमें बँध जाता है । इसलिये साधकमात्रके लिये ममताका त्याग करना
अत्यन्त आवश्यक है । जब साधकमें ममताका त्याग करनेकी तीव्र अभिलाषा जाग्रत् हो
जाती है, तब ममताका त्याग करना बड़ा सुगम हो जाता है । कारण कि जब साधक सच्चे हृदयसे संसारसे विमुख होकर परमात्माकी ओर चलना
चाहता है, तब सम्पूर्ण संसार तथा स्वयं परमात्मा भी उसकी सहायता करनेके लिये तत्पर
हो जाते हैं । इसलिये साधकको कभी भी अपने उद्देश्यकी पूर्तिसे निराश नहीं होना
चाहिये । वह कम-से-कम आयुमें तथा कम-से-कम सामर्थ्यमें भी अपने उद्देश्यकी पूर्ति कर
सकता है । कारण कि अपने उद्देश्यकी पूर्तिके लिये ही भगवान्ने अपनी अहैतुकी कृपासे
उसको मानवशरीर दिया है‒ कबहुँक करि करुना नर देही । देत ईस बिनु हेतु
सनेही ॥
(मानस,
उत्तर॰ ४४ । ३) |