।। श्रीहरिः ।।

  


  आजकी शुभ तिथि–
   फाल्गुन कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७९, बुधवार

कल्याणके तीन सुगम मार्ग



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ज्ञानयोगका मार्ग

मनुष्यमात्रको ‘मैं हूँ’‒इस रूपमें अपनी एक सत्ताका अनुभव होता है । इस सत्तामें अहम्‌ (‘मैं’) मिला हुआ होनेसे ही ‘हूँ’ के रूपमें अपनी एकदेशीय सत्ता अनुभवमें आती है । यदि अहम्‌ न रहे तो ‘है’ के रूपमें सर्वदेशीय सत्ता ही अनुभवमें आयेगी । वह सर्वदेशीय सत्ता ही मनुष्यका वास्तविक स्वरूप है । उस सत्तामें अहम्‌ (जड़ता) नहीं है । जब मनुष्य अहम्‌को स्वीकार करता है, तब वह बँध जाता है और जब सत्ता (‘है’) को स्वीकार करता है, तब वह मुक्त हो जाता है ।

संसारका स्वरूप है‒क्रिया और पदार्थ । क्रिया और पदार्थ‒दोनों ही आदि-अन्तवाले (अनित्य) हैं । प्रत्येक क्रियाका आरम्भ और अन्त होता है । प्रत्येक पदार्थकी उत्पत्ति और विनाश होता है । मात्र जड़ वस्तु मिली है और प्रतिक्षण बिछुड़ रही है । जो मिली है और बिछुड़ जायगी, उसका उपयोग केवल संसारकी सेवामें ही हो सकता है । अपने लिये उसका कोई उपयोग नहीं है । कारण कि मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तु अपनी नहीं होती‒यह सिद्धान्त है । जो वस्तु अपनी नहीं होती, वह अपने लिये भी नहीं होती । अपनी वस्तु वह होती है, जिसपर हमारा पूरा अधिकार हो और अपने लिये वस्तु वह होती है, जिसको पानेके बाद फिर कुछ भी पाना शेष नहीं रहे । परन्तु यह हम सबका अनुभव है कि शरीरादि मिली हुई वस्तुओंपर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं चलता । हम अपनी इच्छाके अनुसार उनको प्राप्त नहीं कर सकते, उनको रख नहीं सकते, उनको बना नहीं सकते, उनमें परिवर्तन नहीं कर सकते । उनकी प्राप्तिके बाद भी ‘और मिले, और मिले’ यह कामना बनी रहती है अर्थात्‌ अभाव बना रहता है । इस अभावकी कभी पूर्ति नहीं होती । इसलिये साधकको चाहिये कि वह इस सत्यको स्वीकार करे कि मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तु मेरी और मेरे लिये नहीं है ।

मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तुको अपनी और अपने लिये न माननेसे मनुष्य निर्मम हो जाता है । निर्मम होते ही उसके द्वारा मिली हुई वस्तुओंका सदुपयोग सुगमतासे होने लगता है । कारण कि निर्मम हुए बिना प्राप्त वस्तुओंका सदुपयोग नहीं हो सकता । ममतावाले मनुष्यके द्वारा प्राप्त वस्तुओंका दुरुपयोग ही होता है । भोग और संग्रह करना ही प्राप्त वस्तुओंका दुरुपयोग है और उनको दूसरोंकी सेवामें लगाना ही उनका सदुपयोग है । प्राप्त वस्तुओंके दुरुपयोगसे समाजमें संघर्ष पैदा होता है और सदुपयोगसे समाजमें शान्तिकी स्थापना होती है ।

मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तुओंको अपना और अपने लिये मानना मनुष्यकी भूल है । जब स्वयं चेतन तथा अविनाशी है तो फिर जड़ तथा नाशवान्‌ वस्तु अपनी और अपने लिये कैसे हुई ? यह भूल स्वतः-स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत मनुष्यके द्वारा उत्पन्‍न की हुई (कृत्रिम) है । अपने विवेकको महत्त्व न देनेसे यह भूल उत्पन्‍न होती है । इस एक भूलसे फिर अनेक तरहकी भूलें उत्पन्‍न होती हैं । इसलिये इस मूल भूलको मिटाना अत्यन्त आवश्यक है और इसको मिटानेकी जिम्मेवारी मनुष्यपर ही है । इसको मिटानेके लिये भगवान्‌ने मनुष्यको विवेक दिया है । जब मनुष्य अपने विवेकको महत्त्व देकर इस भूलको मिटा देता है, तब वह निर्मम हो जाता है ।

निर्मम होना प्रत्येक साधकके लिये बहुत आवश्यक है; क्योंकि ममताको मिटाये बिना साधककी उन्‍नति नहीं हो सकती । इतना ही नहीं, जिसमें ममता की जाती है, वह वस्तु भी अशुद्ध हो जाती है और उसकी उन्‍नतिमें भी बाधा लग जाती है । ममतासे मनुष्यमें अनेक दोषोंकी उत्पत्ति होती है ।

कुछ लोगोंको यह शंका होती है कि ममताके बिना हमारा शरीर कैसे चलेगा ? हम परिवार अथवा समाजकी सेवा कैसे करेंगे ? परन्तु वास्तवमें ममताके कारण शरीर, समाज, परिवार आदिकी सेवामें बाधा ही लगती है । निर्मम मनुष्यका शरीर-निर्वाह बहुत बढ़िया रीतिसे होता है । निर्मम मनुष्यके द्वारा ही परिवार, समाज आदिकी वास्तविक सेवा होती है । जिसकी अपने शरीरमें ममता है, वह परिवारकी सेवा नहीं कर सकता । जिसकी अपने परिवारमें ममता है, वह समाजकी सेवा नहीं कर सकता । जिसकी अपने समाजमें ममता है, वह देशकी सेवा नहीं कर सकता । जिसकी अपने देशमे ममता है, वह दुनियाकी सेवा नहीं कर सकता । तात्पर्य है कि ममताके कारण मनुष्यका भाव संकुचित, एकदेशीय हो जाता है । वह सेवासे विमुख होकर स्वार्थमें बँध जाता है । इसलिये साधकमात्रके लिये ममताका त्याग करना अत्यन्त आवश्यक है । जब साधकमें ममताका त्याग करनेकी तीव्र अभिलाषा जाग्रत्‌ हो जाती है, तब ममताका त्याग करना बड़ा सुगम हो जाता है । कारण कि जब साधक सच्‍चे हृदयसे संसारसे विमुख होकर परमात्माकी ओर चलना चाहता है, तब सम्पूर्ण संसार तथा स्वयं परमात्मा भी उसकी सहायता करनेके लिये तत्पर हो जाते हैं । इसलिये साधकको कभी भी अपने उद्देश्यकी पूर्तिसे निराश नहीं होना चाहिये । वह कम-से-कम आयुमें तथा कम-से-कम सामर्थ्यमें भी अपने उद्देश्यकी पूर्ति कर सकता है । कारण कि अपने उद्देश्यकी पूर्तिके लिये ही भगवान्‌ने अपनी अहैतुकी कृपासे उसको मानवशरीर दिया है‒

कबहुँक करि करुना नर देही ।

देत ईस   बिनु   हेतु  सनेही

(मानस, उत्तर ४४ । ३)