।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०८०, बुधवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धअब पीछेके श्‍लोकको पुष्‍ट करनेके लिये भगवान् आगेके श्‍लोकमें उदाहरण देते हैं ।

सूक्ष्म विषयसमबुद्धिकी विशेष महिमाका कथन ।

      कर्मजं  बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।

      जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः  पदं  गच्छन्त्यनामयम् ॥ ५१ ॥

अर्थ‒कारण कि समतायुक्त बुद्धिमान् साधक कर्मजन्य फलका अर्थात् संसारमात्रका त्याग करके जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर निर्विकार पदको प्राप्‍त हो जाते हैं ।

हि = कारण कि

त्यक्त्वा = त्याग करके

बुद्धियुक्ताः = समतायुक्त

जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः = जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर

मनीषिणः = बुद्धिमान् साधक

अनामयम् = निर्विकार

कर्मजम् = कर्मजन्य

पदम् = पदको

फलम् = फलका अर्थात् संसारमात्रका

गच्छन्ति = प्राप्‍त हो जाते हैं ।

व्याख्याकर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणःजो समतासे युक्त हैं, वे ही वास्तवमें मनीषी अर्थात् बुद्धिमान् हैं । अठारहवें अध्यायके दसवें श्‍लोकमें भी कहा है कि जो मनुष्य अकुशल कर्मोंसे द्वेष नहीं करता और कुशल कर्मोंमें राग नहीं करता, वह मेधावी (बुद्धिमान्) है ।

कर्म तो फलके रूपमें परिणत होता ही है । उसके फलका त्याग कोई कर ही नहीं सकता । जैसे, कोई खेतीमें निष्कामभावसे बीज बोये, तो क्या खेतीमें अनाज नहीं होगा ? बोया है तो पैदा अवश्य होगा । ऐसे ही कोई निष्कामभावपूर्वक कर्म करता है, तो उसको कर्मका फल तो मिलेगा ही, पर वह बन्धनकारक नहीं होगा । अतः यहाँ कर्मजन्य फलका त्याग करनेका अर्थ हैकर्मजन्य फलकी इच्छा, कामना, ममता, वासनाका त्याग करना । इसका त्याग करनेमें सभी समर्थ हैं ।

जन्मबन्धविनिर्मुक्ताःसमतायुक्त मनीषी साधक जन्मरूप बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं । कारण कि समतामें स्थित हो जानेसे उनमें राग-द्वेष, कामना, वासना, ममता आदि दोष किंचिन्मात्र भी नहीं रहते; अतः उनके पुनर्जन्मका कारण ही नहीं रहता । वे जन्म-मरणरूप बन्धनसे सदाके लिये मुक्त हो जाते हैं ।

पदं गच्छन्त्यनामयम्‒‘आमयनाम रोगका है । रोग एक विकार है । जिसमें किंचिन्मात्र भी किसी प्रकारका विकार न हो, उसको अनामयअर्थात् निर्विकार कहते हैं । समतायुक्त मनीषीलोग ऐसे निर्विकार पदको प्राप्‍त हो जाते हैं । इसी निर्विकार पदको पन्द्रहवें अध्यायके पाँचवें श्‍लोकमें अव्यय पदऔर अठारहवें अध्यायके छप्पनवें श्‍लोकमें शाश्‍वत अव्यय पदनामसे कहा गया है ।

यद्यपि गीतामें सत्त्वगुणको भी अनामय कहा गया है (१४ । ६), पर वास्तवमें अनामय (निर्विकार) तो अपना स्वरूप अथवा परमात्मतत्त्व ही है; क्योंकि वह गुणातीत तत्त्व है, जिसको प्राप्‍त होकर फिर किसीको भी जन्म-मरणके चक्‍करमें नहीं आना पड़ता । परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍तिमें हेतु होनेसे भगवान्‌ने सत्त्वगुणको भी अनामय कह दिया है ।

अनामय पदको प्राप्‍त होना क्या है ? प्रकृति विकारशील है, तो उसका कार्य शरीर-संसार भी विकारशील हैं । स्वयं निर्विकार होते हुए भी जब यह विकारी शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब यह अपनेको भी विकारी मान लेता है । परन्तु जब यह शरीरके साथ माने हुए सम्बन्धका त्याग कर देता है, तब इसको अपने सहज निर्विकार स्वरूपका अनुभव हो जाता है । इस स्वाभाविक निर्विकारताका अनुभव होनेको ही यहाँ अनामय पदको प्राप्‍त होना कहा गया है ।

इस श्‍लोकमें बुद्धियुक्ताः और मनीषिणः पदमें बहुवचन देनेका तात्पर्य है कि जो भी समतामें स्थित हो जाते हैं, वे सब-के-सब अनामय पदको प्राप्‍त हो जाते हैं, मुक्त हो जाते हैं । उनमेंसे कोई भी बाकी नहीं रहता । इस तरह समता अनामय पदकी प्राप्‍तिका अचूक उपाय है । इससे यह नियम सिद्ध होता है कि जब उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंके साथ सम्बन्ध नहीं रहता, तब स्वतःसिद्ध निर्विकारताका अनुभव हो जाता है । इसके लिये कुछ भी परिश्रम नहीं करना पड़ता; क्योंकि उस निर्विकारताका निर्माण नहीं करना पड़ता, वह तो स्वतः-स्वाभाविक ही है ।

परिशिष्‍ट भावकर्मोंमें योग (समता) ही कुशलता क्यों हैइसका कारण हि पदसे इस श्‍लोकमें बताते हैं ।

सात्त्विक कर्मका फल निर्मल है, राजस कर्मका फल दुःख है और तामस कर्मका फल मूढ़ता है (गीताचौदहवें अध्यायका सोलहवाँ श्‍लोक)इन तीनों प्रकारके फलोंका समतायुक्त मनुष्य त्याग कर देता है । कर्मजन्य फलके त्यागके दो अर्थ हैंफलकी इच्छाका त्याग करना और कर्मोंके फलस्वरूप अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति प्राप्‍त होनेपर सुखी-दुःखी न होना ।

वास्तवमें उत्पत्ति-विनाशशील सम्पूर्ण संसार कर्मफलके सिवाय और कुछ है ही नहीं । कर्मफलका त्याग कर दें तो फिर कोई भी बन्धन बाकी नहीं रहता ।

मनीषीशब्दका अर्थ हैबुद्धिमान् । पूर्वश्‍लोकके अनुसार समतापूर्वक कर्म करना ही बुद्धिमत्ता हैस बुद्धिमान्मनुष्येषु (गीता ४ । १८) ।

पदं गच्छन्त्यनामयम्गच्छन्ति पदके तीन अर्थ होते हैं१-ज्ञान होना, २-गमन करना और ३-प्राप्‍त होना । यहाँ निर्विकार पदकी प्राप्‍तिका अर्थ हैजन्म-मरणसे रहितपनेका और निर्विकार पदकी स्वतःसिद्ध प्राप्‍तिका ज्ञान हो जाना । कारण कि नित्य-निवृत्तकी ही निवृत्ति होती है और नित्यप्राप्‍तकी ही प्राप्‍ति होती है ।

इस श्‍लोकसे यह सिद्ध होता है कि कर्मयोग मुक्तिका, कल्याणप्राप्‍तिका स्वतन्त्र साधन है । कर्मयोगसे संसारकी निवृत्ति और परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍तिदोनों हो जाते हैं ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्यासमतामें स्थित होकर कर्म करनेवाले अर्थात् कर्मयोगी साधक जन्म-मरणसे रहित होकर परमात्मतत्त्वको प्राप्‍त हो जाते हैं । अतः कर्मयोग मुक्तिका स्वतन्त्र साधन है ।

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