Listen सम्बन्ध‒अब पीछेके श्लोकको पुष्ट करनेके लिये भगवान्
आगेके श्लोकमें उदाहरण देते हैं । सूक्ष्म विषय‒समबुद्धिकी विशेष महिमाका कथन । कर्मजं बुद्धियुक्ता हि
फलं त्यक्त्वा मनीषिणः । जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः
पदं
गच्छन्त्यनामयम् ॥ ५१ ॥ अर्थ‒कारण कि समतायुक्त बुद्धिमान् साधक कर्मजन्य फलका अर्थात् संसारमात्रका
त्याग करके जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर निर्विकार पदको प्राप्त हो जाते हैं ।
व्याख्या‒‘कर्मजं बुद्धियुक्ता
हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः’‒जो समतासे युक्त हैं, वे ही वास्तवमें मनीषी अर्थात् बुद्धिमान् हैं । अठारहवें अध्यायके
दसवें श्लोकमें भी कहा है कि जो मनुष्य अकुशल कर्मोंसे द्वेष नहीं करता और कुशल कर्मोंमें
राग नहीं करता, वह मेधावी (बुद्धिमान्) है । कर्म तो फलके रूपमें परिणत होता ही है । उसके फलका त्याग कोई
कर ही नहीं सकता । जैसे, कोई खेतीमें निष्कामभावसे बीज बोये,
तो क्या खेतीमें अनाज नहीं होगा
? बोया है तो पैदा अवश्य होगा
। ऐसे ही कोई निष्कामभावपूर्वक कर्म करता है, तो उसको कर्मका फल तो मिलेगा ही,
पर वह बन्धनकारक नहीं होगा । अतः यहाँ कर्मजन्य फलका त्याग करनेका अर्थ है‒कर्मजन्य
फलकी इच्छा, कामना, ममता, वासनाका त्याग करना । इसका त्याग करनेमें सभी समर्थ
हैं । ‘जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः’‒समतायुक्त मनीषी साधक जन्मरूप बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं । कारण कि समतामें स्थित
हो जानेसे उनमें राग-द्वेष, कामना, वासना, ममता आदि दोष किंचिन्मात्र भी नहीं रहते;
अतः उनके पुनर्जन्मका कारण ही नहीं रहता । वे जन्म-मरणरूप बन्धनसे
सदाके लिये मुक्त हो जाते हैं । ‘पदं
गच्छन्त्यनामयम्’‒‘आमय’ नाम रोगका है । रोग एक विकार है । जिसमें किंचिन्मात्र भी किसी
प्रकारका विकार न हो, उसको ‘अनामय’ अर्थात् निर्विकार कहते हैं । समतायुक्त मनीषीलोग ऐसे निर्विकार
पदको प्राप्त हो जाते हैं । इसी निर्विकार पदको पन्द्रहवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें
‘अव्यय पद’ और अठारहवें अध्यायके छप्पनवें श्लोकमें ‘शाश्वत अव्यय पद’ नामसे कहा गया है । यद्यपि गीतामें सत्त्वगुणको भी अनामय कहा गया है (१४ । ६),
पर वास्तवमें अनामय (निर्विकार) तो अपना स्वरूप अथवा परमात्मतत्त्व
ही है;
क्योंकि वह गुणातीत तत्त्व है,
जिसको प्राप्त होकर फिर किसीको भी जन्म-मरणके चक्करमें नहीं
आना पड़ता । परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें हेतु होनेसे भगवान्ने सत्त्वगुणको भी अनामय
कह दिया है । अनामय पदको प्राप्त होना क्या है
? प्रकृति विकारशील है,
तो उसका कार्य शरीर-संसार भी विकारशील हैं । स्वयं निर्विकार
होते हुए भी जब यह विकारी शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता है,
तब यह अपनेको भी विकारी मान लेता है । परन्तु जब यह शरीरके साथ
माने हुए सम्बन्धका त्याग कर देता है, तब इसको अपने सहज निर्विकार स्वरूपका अनुभव हो जाता है । इस
स्वाभाविक निर्विकारताका अनुभव होनेको ही यहाँ अनामय पदको प्राप्त होना कहा गया है
। इस श्लोकमें ‘बुद्धियुक्ताः’
और ‘मनीषिणः’
पदमें बहुवचन देनेका तात्पर्य है कि जो भी समतामें स्थित हो
जाते हैं,
वे सब-के-सब अनामय पदको प्राप्त हो जाते हैं,
मुक्त हो जाते हैं । उनमेंसे कोई भी बाकी नहीं रहता । इस तरह
समता अनामय पदकी प्राप्तिका अचूक उपाय है । इससे यह नियम सिद्ध होता है कि जब उत्पत्ति-विनाशशील
पदार्थोंके साथ सम्बन्ध नहीं रहता, तब स्वतःसिद्ध निर्विकारताका अनुभव हो जाता है । इसके लिये कुछ
भी परिश्रम नहीं करना पड़ता; क्योंकि उस निर्विकारताका निर्माण नहीं करना पड़ता,
वह तो स्वतः-स्वाभाविक ही है । परिशिष्ट भाव‒कर्मोंमें योग (समता) ही कुशलता क्यों है‒इसका कारण ‘हि’
पदसे इस श्लोकमें बताते हैं । सात्त्विक कर्मका फल निर्मल है,
राजस कर्मका फल दुःख है और तामस कर्मका फल मूढ़ता है (गीता‒चौदहवें अध्यायका सोलहवाँ श्लोक)‒इन तीनों प्रकारके फलोंका समतायुक्त मनुष्य त्याग कर देता है
। कर्मजन्य फलके त्यागके दो अर्थ हैं‒फलकी
इच्छाका त्याग करना और कर्मोंके फलस्वरूप अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति प्राप्त होनेपर
सुखी-दुःखी न होना । वास्तवमें उत्पत्ति-विनाशशील सम्पूर्ण संसार कर्मफलके सिवाय
और कुछ है ही नहीं । कर्मफलका त्याग कर दें तो फिर कोई भी बन्धन बाकी नहीं रहता । ‘मनीषी’ शब्दका अर्थ है‒बुद्धिमान् । पूर्वश्लोकके अनुसार समतापूर्वक कर्म करना ही
बुद्धिमत्ता है‒‘स बुद्धिमान्मनुष्येषु’ (गीता ४ । १८) । ‘पदं
गच्छन्त्यनामयम्’‒‘गच्छन्ति’
पदके तीन अर्थ होते हैं‒१-ज्ञान होना, २-गमन करना और ३-प्राप्त होना । यहाँ निर्विकार पदकी प्राप्तिका
अर्थ है‒जन्म-मरणसे रहितपनेका और निर्विकार पदकी स्वतःसिद्ध प्राप्तिका
ज्ञान हो जाना । कारण कि नित्य-निवृत्तकी ही निवृत्ति होती है और नित्यप्राप्तकी ही
प्राप्ति होती है । इस श्लोकसे यह सिद्ध होता है कि कर्मयोग
मुक्तिका, कल्याणप्राप्तिका स्वतन्त्र साधन है । कर्मयोगसे
संसारकी निवृत्ति और परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति‒दोनों
हो जाते हैं ।
गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒समतामें स्थित होकर
कर्म करनेवाले अर्थात् कर्मयोगी साधक जन्म-मरणसे रहित होकर परमात्मतत्त्वको प्राप्त
हो जाते हैं । अतः कर्मयोग मुक्तिका स्वतन्त्र साधन है । രരരരരരരരരര |