।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०८०, बुधवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धअब भगवान् आगेके श्‍लोकसे स्थितप्रज्ञ कैसे बैठता है ?’ इस तीसरे प्रश्‍नका उत्तर आरम्भ करते हैं ।

सूक्ष्म विषय५८-५९ श्‍लोककछुएके दृष्‍टान्तसे स्थितप्रज्ञके संयमका और उसके भीतर रहनेवाली रसबुद्धिकी निवृत्तिका वर्णन ।

       यदा   संहरते  चायं  कूर्मोऽङ्गानीव   सर्वशः ।

       इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्‍ठिता ॥ ५८ ॥

अर्थ‒जिस तरह कछुआ अपने अंगोंको सब ओरसे समेट लेता है, ऐसे ही जिस कालमें यह (कर्मयोगी) इन्द्रियोंके विषयोंसे इन्द्रियोंको सब प्रकारसे हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है ।

इव, च = जिस तरह

अयम् = यह (कर्मयोगी)

कूर्मः = कछुआ

इन्द्रियार्थेभ्यः = इन्द्रियोंके विषयोंसे

अङ्गानि = (अपने) अंगोंको

इन्द्रियाणि = इन्द्रियोंको (सब प्रकारसे हटा लेता है, तब)

सर्वशः = सब ओरसे

तस्य = उसकी

संहरते = समेट लेता है, (ऐसे ही)

प्रज्ञा = बुद्धि

यदा = जिस कालमें

प्रतिष्‍ठिता = स्थिर हो जाती है ।

व्याख्यायदा संहरते.....प्रज्ञा प्रतिष्‍ठितायहाँ कछुएका दृष्‍टान्त देनेका तात्पर्य है कि जैसे कछुआ चलता है तो उसके छः अंग दीखते हैंचार पैर, एक पूँछ और एक मस्तक । परन्तु जब वह अपने अंगोंको छिपा लेता है, तब केवल उसकी पीठ ही दिखायी देती है । ऐसे ही स्थितप्रज्ञ पाँच इन्द्रियाँ और एक मनइन छहोंको अपने-अपने विषयसे हटा लेता है । अगर उसका इन्द्रियों आदिके साथ किंचिन्मात्र भी मानसिक सम्बन्ध बना रहता है, तो वह स्थितप्रज्ञ नहीं होता ।

यहाँ संहरते क्रिया देनेका मतलब यह हुआ कि वह स्थितप्रज्ञ विषयोंसे इन्द्रियोंका उपसंहार कर लेता है अर्थात् वह मनसे भी विषयोंका चिन्तन नहीं करता ।

इस श्‍लोकमें यदा पद तो दिया है, पर तदा पद नहीं दिया है । यद्यपि यत्तदोर्नित्यसम्बन्धः के अनुसार जहाँ यदा आता है, वहाँ तदा का अध्याहार लिया जाता है अर्थात् यदा पदके अन्तर्गत ही तदा पद आ जाता है, तथापि यहाँ तदा पदका प्रयोग न करनेका एक गहरा तात्पर्य है कि इन्द्रियोंके अपने-अपने विषयोंसे सर्वथा हट जानेसे स्वतःसिद्ध तत्त्वका जो अनुभव होता है, वह कालके अधीन, कालकी सीमामें नहीं है । कारण कि वह अनुभव किसी क्रिया अथवा त्यागका फल नहीं है । वह अनुभव उत्पन्‍न होनेवाली वस्तु नहीं है । अतः यहाँ कालवाचक तदा पद देनेकी जरूरत नहीं है । इसकी जरूरत तो वहाँ होती है, जहाँ कोई वस्तु किसी वस्तुके अधीन होती है । जैसे आकाशमें सूर्य रहनेपर भी आँखें बंद कर लेनेसे सूर्य नहीं दीखता और आँखें खोलते ही सूर्य दीख जाता है, तो यहाँ सूर्य और आँखोंमें कार्य-कारणका सम्बन्ध नहीं है अर्थात् आँखें खुलनेसे सूर्य पैदा नहीं हुआ है । सूर्य तो पहलेसे ज्यों-का-त्यों ही है । आँखें बंद करनेसे पहले भी सूर्य वैसा ही है और आँखें बंद करनेपर भी सूर्य वैसा ही है । केवल आँखें बंद करनेसे हमें उसका अनुभव नहीं हुआ था । ऐसे ही यहाँ इन्द्रियोंको विषयोंसे हटानेसे स्वतःसिद्ध परमात्मतत्त्वका जो अनुभव हुआ है, वह अनुभव मनसहित इन्द्रियोंका विषय नहीं है । तात्पर्य है कि वह स्वतःसिद्ध तत्त्व भोगों (विषयों)-के साथ सम्बन्ध रखते हुए और भोगोंको भोगते हुए भी वैसा ही है । परन्तु भोगोंके साथ सम्बन्धरूप परदा रहनेसे उसका अनुभव नहीं होता और यह परदा हटते ही उसका अनुभव हो जाता है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्यास्वयं नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है और शरीर नित्य-निरन्तर बदलता रहता है; अतः दोनोंके स्वभावमें कोई अन्तर नहीं पड़ता । परन्तु जब स्वयं शरीरके साथ मैं-मेरेका सम्बन्ध मान लेता है, तब बुद्धिमें (शरीर-संसारका असर पड़नेसे) अन्तर पड़ने लगता है । मैं-मेरापन मिटनेसे बुद्धिमें जो अन्तर पड़ता था, वह मिट जाता है और बुद्धि स्थिर हो जाती है । बुद्धि स्थिर होनेसे स्वयं अपने-आपमें ही स्थित हो जाता है ।

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