।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०८०, शुक्रवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धअब भगवान् आगेके श्‍लोकमें अर्जुनके प्रश्‍नका उत्तर देते हैं ।

सूक्ष्म विषयभगवान्‌के द्वारा पापोंके कारणभूत कामका वर्णन ।

श्रीभगवानुवाच

        काम   एष   क्रोध   एष    रजोगुणसमुद्भवः ।

        महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥ ३७ ॥

अर्थ‒श्रीभगवान् बोले‒रजोगुणसे उत्पन्‍न यह काम अर्थात् कामना (ही पापका कारण है) । यह काम ही क्रोध (-में परिणत होता) है । यह बहुत खानेवाला और महापापी है । इस विषयमें तू इसको ही वैरी जान ।

रजोगुणसमुद्भवः = रजोगुणसे उत्पन्‍न

महापाप्मा = महापापी है ।

एषः = यह

इह = इस विषयमें (तू)

कामः = काम अर्थात् कामना (ही पापका कारण है) ।

एनम् = इसको (ही)

एषः = यह (काम ही)

वैरिणम् = वैरी

क्रोधः = क्रोध (-में परिणत होता) है ।

विद्धि = जान ।

महाशनः = (यह) बहुत खानेवाला (और)

 

व्याख्यारजोगुणसमुद्भवः’आगे चौदहवें अध्यायके सातवें श्‍लोकमें भगवान् कहेंगे कि तृष्णा (कामना) और आसक्तिसे रजोगुण उत्पन्‍न होता है और यहाँ यह कहते हैं कि रजोगुणसे काम उत्पन्‍न होता है । इससे यह समझना चाहिये कि रागसे काम उत्पन्‍न होता है और कामसे राग बढ़ता है । तात्पर्य यह है कि सांसारिक पदार्थोंको सुखदायी माननेसे राग उत्पन्‍न होता है, जिससे अन्तःकरणमें उनका महत्त्व दृढ़ हो जाता है । फिर उन्हीं पदार्थोंका संग्रह करने और उनसे सुख लेनेकी कामना उत्पन्‍न होती है । पुनः कामनासे पदार्थोंमें राग बढ़ता है । यह क्रम जबतक चलता है, तबतक पाप-कर्मसे सर्वथा निवृत्ति नहीं होती ।

काम एष क्रोध एषः’मेरी मनचाही हो‒यही काम है उत्पत्ति-विनाशशील जड-पदार्थोंके संग्रहकी इच्छा, संयोगजन्य सुखकी इच्छा, सुखकी आसक्ति‒ये सब कामके ही रूप हैं ।

१.इदं मे स्यादिदं मे स्यादितीच्छा कामशब्दिता’ (‘यह मुझे मिल जाय, यह मुझे मिल जाय’‒इस प्रकारकी इच्छाकाम’ कहलाती है) ।

पाप-कर्म कहीं तो काम’ के वशीभूत होकर और कहींक्रोध’ के वशीभूत होकर किया गया दीखता है । दोनोंसे अलग-अलग पाप होते हैं । इसलिये दोनों पद दिये । वास्तवमें काम अर्थात् उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंकी कामना, प्रियता, आकर्षण ही समस्त पापोंका मूल है कामनामें बाधा लगनेपर काम ही क्रोधमें परिणत हो जाता है । इसलिये भगवान्‌ने एक कामनाको ही पापोंका मूल बतानेके लिये उपर्युक्त पदोंमें एकवचनका प्रयोग किया है ।

२.यद्यपि भगवत्प्रदत्त विवेकको महत्व न देना और भगवान्‌से विमुख होना भी पापमें हेतु है, तथापि यहाँ काम’ को ही पापका हेतु इसलिये बताया गया है कि यह (तीसरा) अध्याय कर्मयोग’ का है और कर्मयोगका प्रधान लक्ष्य कामनाको मिटाना ही है ।

कामनाकी पूर्ति होनेपर लोभ’ उत्पन्‍न होता है

.‘जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई’ (मानस १ । १८० । १; ६ । १०२ । १) ।

और कामनामें बाधा पहुँचनेपर (बाधा पहुँचानेवालेपर)क्रोध’ उत्पन्‍न होता है । यदि बाधा पहुँचानेवाला अपनेसे अधिक बलवान् हो तो क्रोध उत्पन्‍न न होकरभय’ उत्पन्‍न होता है । इसलिये गीतामें कहीं-कहीं कामना और क्रोधके साथ-साथ भयकी भी बात आयी है; जैसे‒वीतरागभयक्रोधाः’ (४ । १०) और विगतेच्छाभयक्रोधः’ (५ । २८) ।

कामना-सम्बन्धी विशेष बात

कामना सम्पूर्ण पापों, सन्तापों, दुःखों आदिकी जड़ है । कामनावाले व्यक्तिको जाग्रत्‌में सुख मिलना तो दूर रहा, स्वप्‍नमें भी कभी सुख नहीं मिलता‒काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं’ (मानस ७ । ९० । १) । जो चाहते हैं, वह न हो और जो नहीं चाहते, वह हो जाय‒इसीको दुःख कहते हैं । यदि चाहते’ और नहीं चाहते’ को छोड़ दें, तो फिर दुःख है ही कहाँ !

नाशवान् पदार्थोंकी इच्छा ही कामना कहलाती है । अविनाशी परमात्माकी इच्छा कामनाके समान प्रतीत होती हुई भी वास्तवमें कामना’ नहीं है; क्योंकि उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंकी कामना कभी पूरी नहीं होती, प्रत्युत बढ़ती ही रहती है, पर परमात्माकी इच्छा (परमात्मप्राप्‍ति होनेपर) पूरी हो जाती है । दूसरी बात, कामना अपनेसे भिन्‍न वस्तुकी होती है और परमात्मा अपनेसे अभिन्‍न हैं । इसी प्रकार सेवा (कर्मयोग), तत्त्वज्ञान (ज्ञानयोग) और भगवत्प्रेम (भक्तियोग)-की इच्छा भीकामना’ नहीं है । परमात्मप्राप्‍तिकी इच्छा वास्तवमें जीवनकी वास्तविक आवश्यकता (भूख) है । जीवको आवश्यकता तो परमात्माकी है, पर विवेकके दब जानेपर वह नाशवान् पदार्थोंकी कामना करने लगता है ।

एक शंका हो सकती है कि कामनाके बिना संसारका कार्य कैसे चलेगा ? इसका समाधान यह है कि संसारका कार्य वस्तुओंसे, क्रियाओंसे चलता है, मनकी कामनासे नहीं । वस्तुओंका सम्बन्ध कर्मोंसे होता है, चाहे वे कर्म पूर्वके (प्रारब्ध) हों अथवा वर्तमानके (उद्योग) । कर्म बाहरके होते हैं और कामनाएँ भीतरकी । बाहरी कर्मोंका फल भी (वस्तु, परिस्थिति आदिके रूपमें) बाहरी होता है ।

कामनाका सम्बन्ध फल (पदार्थ, परिस्थिति आदि)-की प्राप्‍तिके साथ है ही नहीं । जो वस्तु कर्मके अधीन है, वह कामना करनेसे कैसे प्राप्‍त हो सकती है ? संसारमें देखते ही हैं कि धनकी कामना होनेपर भी लोगोंकी दरिद्रता नहीं मिटती । जीवन्मुक्त महापुरुषोंको छोड़कर शेष सभी व्यक्ति जीनेकी कामना रखते हुए ही मरते हैं । कामना करें या न करें, जो फल मिलनेवाला है, वह तो मिलेगा ही । तात्पर्य यह है कि जो होनेवाला है, वह तो होकर ही रहेगा और जो नहीं होनेवाला है वह कभी नहीं होगा, चाहे उसकी कामना करें या न करें । जैसे कामना न करनेपर भी प्रतिकूल परिस्थिति आ जाती है, ऐसे ही कामना न करनेपर अनुकूल परिस्थिति भी आयेगी ही । रोगकी कामना किये बिना भी रोग आता है और कामना किये बिना भी नीरोगता रहती है । निन्दा-अपमानकी कामना न करनेपर भी निन्दा-अपमान होते हैं और कामना किये बिना भी प्रशंसा-सम्मान होते हैं । जैसे प्रतिकूल परिस्थिति कर्मोंका फल है, ऐसे ही अनुकूल परिस्थिति भी कर्मोंका ही फल है, इसलिये वस्तु, परिस्थिति आदिका प्राप्‍त होना अथवा न होना कर्मोंसे सम्बन्ध रखता है, कामनासे नहीं ।

कामना तात्कालिक सुखकी भी होती है और भावी सुखकी भी । भोग और संग्रहकी इच्छा तात्कालिक सुखकी कामना है और कर्मफलप्राप्‍तिकी इच्छा भावी सुखकी कामना है । इन दोनों ही कामनाओंमें दुःख-ही-दुःख है । कारण कि कामना केवल वर्तमानमें ही दुःख नहीं देती, प्रत्युत भावी जन्ममें कारण होनेसे भविष्यमें भी दुःख देती है । इसलिये इन दोनों ही कामनाओंका त्याग करना चाहिये ।

कर्म और विकर्म (निषिद्धकर्म)‒दोनों ही कामनाके कारण होते हैं । कामनाके कारणकर्म’ होते हैं और कामनाके अधिक बढ़नेपरविकर्म’ होते हैं । कामनाके कारण ही असत्‌में आसक्ति दृढ़ होती है । कामना न रहनेसे असत्‌से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है ।

कामना पूरी हो जानेपर हम उसी अवस्थामें आ जाते हैं, जिस अवस्थामें हम कामना उत्पन्‍न होनेसे पहले थे । जैसे, किसीके मनमें कामना उत्पन्‍न हुई कि मेरेको सौ रुपये मिल जायँ । इसके पहले उसके मनमें सौ रुपये पानेकी कामना नहीं थी; अतः अनुभवसे सिद्ध हुआ कि कामना उत्पन्‍न होनेवाली है । जबतक सौ रुपयोंकी कामना उत्पन्‍न नहीं हुई थी, तबतकनिष्कामता’ की स्थिति थी । उद्योग करनेपर यदि प्रारब्धवशात् सौ रुपये मिल जायँ तो वही निष्कामता’ की स्थिति पुनः आ जाती है । परन्तु सांसारिक सुखासक्तिके कारण वह स्थिति ठहरती नहीं और नयी कामना उत्पन्‍न हो जाती है कि मेरेको हजार रुपये मिल जायँ । इस प्रकार न तो कामना पूरी होती है और न पूरी तृप्‍ति ही होती है । कोरे परिश्रमके सिवा कुछ हाथ नहीं लगता !

काम’ अर्थात् सांसारिक पदार्थोंकी कामनाका त्याग करना कठिन नहीं है । थोड़ा गहरा विचार करें कि वास्तवमें कामना छूटती ही नहीं अथवा टिकती ही नहीं ? पता लगेगा कि वास्तवमें कामना टिकती ही नहीं ! वह तो निरन्तर मिटती ही जाती है; किन्तु मनुष्य नयी-नयी कामनाएँ करके उसे बनाये रखता है । कामना उत्पन्‍न होती है और उत्पन्‍न होनेवाली वस्तुका मिटना अवश्यम्भावी है । इसलिये कामना स्वतः मिटती है । अगर मनुष्य नयी कामना न करे तो पुरानी कामना कभी पूरी होकर और कभी न पूरी होकर स्वतः मिट जाती है ।

कामनाकी पूर्ति सभीके लिये और सदाके लिये नहीं है; परन्तु कामनाका त्याग सभीके लिये और सदाके लिये है । कारण कि कामना अनित्य और त्याग नित्य है । निष्काम होनेमें कठिनाई क्या है ? हम निर्मम नहीं होते, यही कठिनाई है । यदि हम निर्मम हो जायँ तो निष्काम होनेकी शक्ति आ जायगी और निष्काम होनेसे असंग होनेकी शक्ति आ जायगी । जब निर्ममता, निष्कामता और असंगता आ जाती है, तब निर्विकारता, शान्ति और स्वाधीनता स्वतः आ जाती है ।

एक मार्मिक बातपर ध्यान दें । हम कामनाओंका त्याग करना बड़ा कठिन मानते हैं । परन्तु विचार करें कि यदि कामनाओंका त्याग करना कठिन है तो क्या कामनाओंकी पूर्ति करना सुगम है ? सब कामनाओंकी पूर्ति संसारमें आजतक किसीकी नहीं हुई । हमारी तो बात ही क्या, भगवान्‌के बाप (दशरथजी)-की भी कामना पूरी नहीं हुई ! अतः कामनाओंकी पूर्ति होना असम्भव है । पर कामनाओंका त्याग करना असम्भव नहीं है । यदि हम ऐसा मानते हैं कि कामनाओंका त्याग करना कठिन है, तो कठिन बात भी असम्भव बात (कामनाओंकी पूर्ति)-की अपेक्षा सुगम ही पड़ती है; क्योंकि कामनाओंका त्याग तो हो सकता है, पर कामनाओंकी पूर्ति हो ही नहीं सकती । इसलिये कामनाओंकी पूर्तिकी अपेक्षा कामनाओंका त्याग करना सुगम ही है । गलती यही होती है कि जो कार्य कर नहीं सकते, उसके लिये उद्योग करते हैं और जो कार्य कर सकते हैं, उसे करते ही नहीं । इसलिये साधकको कामनाओंका त्याग करना चाहिये, जो कि वह कर सकता है ।

कामनाओंके चार भेद हैं‒

(१)        शरीर-निर्वाहमात्रकी आवश्यक कामनाको पूरा कर दे ।

४. ऐसी कामनामें चार बातोंका होना आवश्यक है‒

(१) जो कामना वर्तमानमें उत्पन्‍न हुई हो (जैसे, भूख लगनेपर भोजनकी कामना) ।

(२) जिसकी पूर्तिकी साधन-सामग्री वर्तमानमें उपलब्ध हो ।

(३) जिसकी पूर्ति किये बिना जीवित रहना सम्भव न हो ।

(४) जिसकी पूर्तिसे अपना तथा दूसरोंका‒किसीका भी अहित न होता हो ।

इस प्रकार शरीर-निर्वाहमात्रकी आवश्यक कामनाओंकी पूर्ति कर लेनी चाहिये । आवश्यक कामनाओंको पूरा करनेसे अनावश्यक कामनाओंके त्यागका बल आ जाता है । परन्तु आवश्यक कामनाओंकी पूर्तिका सुख नहीं लेना है; क्योंकि पूर्तिका सुख लेनेसे नयी-नयी कामनाएँ उत्पन्‍न होती रहेंगी, जिसका कभी अन्तः नहीं आयेगा ।

(२)        जो कामना व्यक्तिगत एवं न्याययुक्त हो और जिसको पूरा करना हमारी सामर्थ्यसे बाहर हो, उसको भगवान्‌के अर्पण करके मिटा दे ।

५. उदाहरणार्थ‒संसारमें अन्याय-अत्याचार न हो’ऐसी तीव्र व्यक्तिगत कामना न्याययुक्त और अपनी सामर्थसे बाहर है । अतः ऐसी कामनाको भगवान्‌के अर्पण करके निश्‍चिन्त हो जाय । ऐसी भगवदर्पित कामना भविष्यमें (भगवान् चाहें तो) पूरी हो जाती है ।

(३) दूसरोंकी वह कामना पूरी कर दे, जो न्याययुक्त और हितकारी हो तथा जिसको पूरी करनेकी सामर्थ्य हमारेमें हो । इस प्रकार दूसरोंकी कामना पूरी करनेपर हमारेमें कामना-त्यागकी सामर्थ्य आती है ।

(४) उपर्युक्त तीनों प्रकारकी कामनाओंके अतिरिक्त दूसरी सब कामनाओंको विचारके द्वारा मिटा दे ।

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