Listen सम्बन्ध‒आठवें श्लोकमें अपने अवतारके उद्देश्यका
वर्णन करके नवें श्लोकमें भगवान्ने अपने कर्मोंकी दिव्यताको जाननेका माहात्म्य बताया
। कर्मजन्य सिद्धि चाहनेसे ही कर्मोंमें अदिव्यता (मलिनता) आती है, अतः कर्मोंमें दिव्यता (पवित्रता) कैसे
आती है‒इसे बतानेके लिये अब भगवान् अपने कर्मोंकी दिव्यताका विशेष वर्णन करते हैं । सूक्ष्म विषय‒भगवान्के कर्मोंकी दिव्यता । चातुर्वर्ण्यं
मया सृष्टं
गुणकर्मविभागशः
। तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥१३॥ न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले
स्पृहा । इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥१४॥ अर्थ‒मेरे द्वारा गुणों और कर्मोंके विभागपूर्वक
चारों वर्णोकी रचना की गयी है । उस (सृष्टि-रचना आदि)-का कर्ता होनेपर भी मुझ अविनाशी
परमेश्वरको तू अकर्ता जान ! कारण कि कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते । इस प्रकार जो मुझे
तत्त्वसे जान लेता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता ।
व्याख्या‒‘चातुर्वर्ण्यं१ मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः’ १.‘चत्वारो वर्णाश्चातुर्वर्ण्यम्’ यहाँपर ‘चतुर्वर्णादीनां स्वार्थे
उपसंख्यानम्’ इस वार्तिकसे
स्वार्थमें ‘ष्यञ् प्रत्यय’ किया गया है । ‒पूर्वजन्मोंमें किये गये कर्मोंके
अनुसार सत्त्व, रज
और तम‒इन तीनों गुणोंमें न्यूनाधिकता रहती है । सृष्टि-रचनाके समय उन गुणों और कर्मोंके
अनुसार भगवान् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र‒इन चारों वर्णोंकी रचना करते हैं२ । २.सत्त्वगुणकी प्रधानतासे ब्राह्मणकी, रजोगुणकी प्रधानता तथा सत्त्वगुणकी
गौणतासे क्षत्रियकी, रजोगुणकी प्रधानता तथा तमोगुणकी गौणतासे वैश्यकी और तमोगुणकी प्रधानतासे शूद्रकी
रचना की गयी है । मनुष्यके सिवाय देव, पितर, तिर्यक् आदि दूसरी योनियोंकी रचना भी
भगवान् गुणों और कर्मोंके अनुसार ही करते हैं । इसमें भगवान्की किंचिन्मात्र भी विषमता
नहीं है । ‘चातुर्वर्ण्यम्’ पद प्राणिमात्रका उपलक्षण है । इसका
तात्पर्य है कि मनुष्य ही चार प्रकारके नहीं होते, अपितु पशु, पक्षी, वृक्ष आदि भी चार प्रकारके होते हैं; जैसे‒पक्षियोंमें कबूतर आदि ब्राह्मण, बाज आदि क्षत्रिय, चील आदि वैश्य और कौआ आदि शूद्र पक्षी
हैं । इसी प्रकार वृक्षोंमें पीपल आदि ब्राह्मण, नीम आदि क्षत्रिय, इमली आदि वैश्य और बबूल (कीकर) आदि
शूद्र वृक्ष हैं । परन्तु यहाँ ‘चातुर्वर्ण्यम्’ पदसे
मनुष्योंको ही लेना चाहिये; क्योंकि वर्ण-विभागको मनुष्य ही समझ सकते हैं और उसके
अनुसार कर्म कर सकते हैं । कर्म करनेका अधिकार मनुष्यको ही
है । चारों वर्णोंकी रचना मैंने ही की है‒इससे
भगवान्का यह भाव भी है कि एक तो ये मेरे ही अंश हैं; और दूसरे, मैं प्राणिमात्रका सुहृद् हूँ, इसलिये मैं सदा उनके हितको ही देखता
हूँ । इसके विपरीत ये न तो देवताके अंश हैं और न देवता सबके सुहृद् ही हैं । इसलिये
मनुष्यको चाहिये कि वह अपने वर्णके अनुसार समस्त कर्तव्यकर्मोंसे
मेरा ही पूजन करे (गीता‒अठारहवें अध्यायका छियालीसवाँ श्लोक) । ‘तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्’‒यहाँ ‘अकर्तारम्’
पद कर्म करते हुए भी कर्तृत्वाभिमानका अभाव बतानेके लिये आया है । सृष्टिकी रचना, पालन, संहार आदि सम्पूर्ण कर्मोंको करते हुए
भी भगवान् उन कर्मोंसे सर्वथा अतीत, निर्लिप्त ही रहते हैं । सृष्टि-रचनामें भगवान् ही उपादान कारण
हैं और वे ही निमित्त कारण हैं । मिट्टीसे बने पात्रमें मिट्टी उपादान कारण है और कुम्हार
निमित्त कारण है । मिट्टीसे पात्र बननेमें मिट्टी व्यय (खर्च) हो जाती है और उसे बनानेमें
कुम्हारकी शक्ति भी खर्च होती है; परन्तु सृष्टि-रचनामें भगवान्का कुछ भी व्यय नहीं होता
। वे ज्यों-के-त्यों ही रहते हैं । इसलिये उन्हें ‘अव्ययम्’
कहा गया है । जीव भी भगवान्का अंश होनेसे अव्यय
ही है । विचार करें कि शरीरादि सब वस्तुएँ संसारकी हैं और संसारसे ही मिली हैं । अतः
उन्हें संसारकी ही सेवामें लगा देनेसे अपना क्या व्यय हुआ ? हम तो (स्वरूपतः) अव्यय ही रहे । इसलिये
यदि साधक शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, धन, सम्पत्ति आदि मिले हुए सांसारिक
पदार्थोंको अपना और अपने लिये न माने, तो फिर उसे अपनी अव्ययताका
अनुभव हो जायगा ।
यहाँ ‘विद्धि’
पदसे भगवान्ने अपने कर्मोंकी दिव्यताको समझनेकी आज्ञा दी है । कर्म करते हुए भी कर्म, कर्म-सामग्री और कर्मफलसे
अपना कोई सम्बन्ध न रहना ही कर्मोंकी दिव्यता है । രരരരരരരരരര |