(गत ब्लॉगसे आगेका)
पन्द्रहवाँ अध्याय
इस संसारका मूल आधार और इस संसारमें अत्यन्त श्रेष्ठ परमपुरुष
एक परमात्मा ही है‒इसको दृढ़तापूर्वक मान लेनेसे मनुष्य सर्ववित् हो जाता है, कृतकृत्य हो जाता है
।
जिससे यह संसार अनादिकालसे चला आ रहा है और जिसको प्राप्त होनेपर यह जीव फिर लौटकर
संसारमें नहीं आता, उस परमात्माकी खोज करनी चाहिये । ज्ञान-नेत्रवाले
साधक अपने-आपमें उस परमात्माका अनुभव कर लेते है । वह परमात्मा
ही सूर्य, चन्द्रमा और अग्निमें तेजरूपसे रहकर संसारमें प्रकाश
करता है । वही पृथ्वीमें प्रवेश करके पृथ्वीको धारण करता है । वही रसमय चन्द्रमा होकर
पेड़, पौधे, लता आदिको पुष्ट करता है ।
वही जठराग्नि बनकर प्राणियोंके द्वारा खाये गये अन्नको पचाता है । वही सबके हृदयमें
रहनेवाला, वेदोंको बनानेवाला, वेदोंको जाननेवाला
और वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य है । वह सम्पूर्ण संसारका पालन-पोषण करता है । वह नाशवान् संसारसे अतीत और अविनाशी जीवात्मासे उत्तम है ।
वही लोकमें और वेदमें पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध है । उसको सर्वश्रेष्ठ मानकर अनन्यभावसे
उसका भजन करना चाहिये ।
सोलहवाँ अध्याय
दुर्गुण-दुराचारोंसे ही मनुष्य चौरासी लाख योनियों एवं नरकोंमें जाता है
। अतः मनुष्यको सद्गुण-सदाचारोंको धारण करके संसारके बन्धनसे,
जन्म-मरणके चक्करसे रहित हो जाना चाहिये ।
जो दम्भ, दर्प,
अभिमान, काम, क्रोध,
लोभ आदि आसुरी-सम्पत्तिके गुणोंका त्याग करके अभय,
अहिंसा, सत्य, अक्रोध,
दया, यज्ञ, दान, तप आदि दैवी-सम्पत्तिके गुणोंको धारण करते हैं,
वे संसारके बन्धनसे रहित हो जाते हैं । परन्तु जो केवल दुर्गुण-दुराचारोंका, काम, क्रोध,
लोभ, चिन्ता, अहंकार आदिका
आश्रय रखते हैं, उनमें ही रचे-पचे रहते
हैं, ऐसे वे आसुरी-सम्पदावाले मनुष्य चौरासी
लाख योनियों एवं नरकोंमें जाते हैं ।
सत्रहवाँ अध्याय
शास्त्रविधिको जाननेवाले अथवा न जाननेवाले मनुष्योंको चाहिये
कि वे श्रद्धापूर्वक जो कुछ शुभ कार्य करते हैं, उस कार्यको भगवान्को
याद करके, भगवन्नामका उच्चारण करके आरम्भ करें ।
जो शास्त्रविधिको तो नहीं जानते, पर श्रद्धापूर्वक यजन-पूजन करते है,
उनकी श्रद्धा (निष्ठा, स्थिति)
तीन प्रकारकी होती हैं‒सात्त्विकी, राजसी और तामसी । श्रद्धाके अनुसार ही उनके द्वारा पूजे जानेवाले
देवता भी तीन तरहके होते हैं । जो यजन-पूजन नहीं करते,
उनकी श्रद्धाकी पहचान आहारसे हो जाती है, क्योंकि
आहार (भोजन) तो सभी करते ही हैं ।
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‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे |