।। श्रीहरिः ।।
परमात्मप्राप्ति सरल है

देहिनोऽस्मिन्यथा यथा देहे कौमारं यौवनं जरा, तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति’ — यह संसार नित्य परिवर्तनशील है, बदलता ही रहता है । एक क्षण ही स्थिर नहीं रहता है । तो बदलना बहुत आवश्यक है और बदलनेसे अंत में नाशकी तरफ जाता है । अविनाशी बदलता नहीं और नाशकी तरफ जाता नहीं, अविनाशी ही रहता है । संसारका काम तो बदलनेसे ही होता है और परमात्मतत्वकी प्राप्ति न बदलनेसे ही होती है । वही है जो रहता है । ‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं ज्ञास्यसि पाण्डव’, शरीर, विचार, वस्तु बदलती रहती है,यह सब बदलनेवाले है और खतम होनेवाले है । और संसारमें जो अच्छापन है, वह बदलनमें ही है । न बदलनेमें नहीं है, नहीं तो धान, फल, वृक्ष, शरीर भी कैसे होगा ? बिना बदले कैसे होगा फुलमें से फल ? तो इसकी बदलनेसे ही सुंदरता है । और जो बदलता है वह नित्य रह सकता ही नहीं कभी ! क्योंकि ‘नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः’ । असत् का भाव विद्यमान नहीं रहता है, नित्य-निरंतर बदलता रहता है और सत् का अभाव नहीं होता है, हो सकता नहीं है । इस आधे श्लोकमें सम्पूर्ण शास्त्रोंका, वेदोंका सार भरा हुआ है, बहुत गहरा भाव भरा हुआ है । सब संसार नाशवान है और स्वयं चेतन, अविनाशी है । यह अविनाशी होकर नाशवानके द्वारा सुख चाहता है, आराम, उन्नति चाहता है; बड़ी भारी गलती करता है । यह कभी होनेवाला नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं, प्रत्यक्ष बात है । शरीर द्वारा आप कैसे सुखी हो सकते हो ? पदार्थ, भोग, रुपयें द्वारा आप कैसे सुखी हो सकते हो ? आपमें तो परिवर्तन होता नहीं, इसमें तो परिवर्तन ही परिवर्तन है, बिलकुल विरुद्ध स्वाभाव है । आप अपरिवर्तनशील हो तो अपरिवर्तनशील के साथ ही शांतिसे रह सकते हो । परिवर्तनशीलके साथ कैसे आनंद हो सकता है ? असंभव बात है । बहुत सीधी और सरल बात है , विचार करोगे तो आपको साफ दिखेगी, प्रत्यक्ष अनुभव है । आपने कितने ही व्याख्यान,कथा सुनी है, परन्तु कभी ऐसा सुना है कि परमात्म बदलते है ? वे परमात्मा और हो गए है और पहले परमात्म और थे ? कभी किसी शास्त्र, पुराण, मत-मतान्तर, मजहब, धर्ममें सुना है ? वह सब जगह है, और सबका है । जो सबका हो, वही हमारा हो सकता है । किसीका हो और किसीका न हो, वह हमारा नहीं हो; वह हमारा कैसे हो सकता है ? कभी हो और कभी न हो, वह सदा कैसे हो सकता है ? कहीं हो और कहीं न हो, वह सब जगह कैसे मिल सकता है ? आप विचार ही नहीं करते हो, सोचो तो सही ! जिसके लिए भयंकर पाप करते हो वह रहेगा क्या ? गर्भपात जैसे भयंकर पाप करते हो ...राम राम राम ...!!! महान, भयंकर कष्ट पाना पड़ेगा ! सत्संग करनेवाले भी इस बातको समजते नहीं ? गहरा उतरना चाहते ही नहीं ! समझना चाहो तो आपके समझमें बहुत बातें आ सकती है ।
श्रोता — ‘मन्मना भव’ ऐसा कहनेमें भगवानका क्या तात्पर्य है ? ‘मेरे में मन लगा’ तो मेरी कल्पनाके अनुसार ही मन लगाऊंगा ! तो भगवान मेरी कल्पना ही हुए !
स्वामीजी — ‘मेरे में मन लगा’ इसमें आप जो समजो वह सब तात्पर्य है । भगवानको सगुण मानो तो सगुणमें तात्पर्य है, निर्गुण समझो तो निर्गुणमें तात्पर्य है । निराकार, साकार, समझो तो उसीमें तात्पर्य है । परमात्माका कोई भी रूप हो, नित्य है वह ! आपने आज दिन तक जो पढ़ा हो, समझा हो, माना हो; वही रूप, उसीमें मन लगाओ — यह तात्पर्य है । साकार, निराकार, सगुण, निर्गुण वही है, उसमें भेद मानना गलती है ।
परमात्माका जो भी चिंतन किया जायेगा, सब-का-सब कल्पित ही होगा किसीकी भी ताकत नहीं है कि भगवानके असली रूपको पकड़ सकें ! तो हम पकड़ नहीं सकते परन्तु हमारी पकड़में वे आ जाते है ! हम पकड़ नहीं सकते मगर वे पकड़में आ जाता है ! हम साकारको नहीं जानते, पर वो साकार हो सकते है ! हम आँख, कानसे नहीं पकड़ सकते पर वे देखने, सुननेमें आ जाते है; मानो हम उनतक नहीं पहुँच सकते पर वे हमारे तक पहुँच सकते है, वे सर्व-समर्थ है । हम जो भाव रखते है, वे उस भावको स्वीकार कर लेते है । क्योंकि हमारी कमजोरीको वे जानते है । नहीं जानते तो ईश्वर, भगवान कैसे हुए ? ब्रह्म,निराकार ..आदि जोर लगाके कर लो, सिवाय आपकी कल्पनाके कुछ नहीं है । जैसे सगुण माया है, वैसे ही निर्गुण भी माया है । बराबर है, कोई फर्क नहीं है दोनोंमें ! परन्तु हमारा लक्ष्य परमात्मा है, उस लक्ष्यको परमात्मा जानते है और मान लेते है । हम परमात्माका ध्यान करते है तो हम परमात्माको ध्यानसे पकड़ नहीं सकते, परन्तु भगवान हमारे भावको स्वीकार कर लेते है; ‘भावग्राही जनार्दनः’ । जैसे बालक माँको माँ, जननी, मधर; कोई बालक माँको भाभी, मासी, बाई कहता है तो क्या माँ भाई या देवर समझती है क्या ? कोई नाम लेकर बोलता है तो भी माँ समझती है उस बालक के भाव को ! ऐसे सर्व-वित् है भगवान ! भाषा बादमें प्रगट होती है । उसके मन, बुद्धि, प्रेरणामें भाव होते है, उसको परमात्मा जानते है । इस वास्ते हमारा लक्ष्य परमात्मा है, उसीसे हमें परमात्माकी प्राप्ति होती है । प्रकृति परमात्माको नहीं पकड़ सकती है, फिर यह प्रकृतिजन्य यह साकार, सगुण; उत्पन्न और नष्ट होनेवाला कैसे पकड़ सकता है ? पर परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है वैसे-के-वैसे ही ! सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटनामें वैसे के वैसे ही है; पर लक्ष्य होनेसे परमात्मा प्राप्त हो जाते है । तो तत्वज्ञान, दर्शन उनकी कृपासे ही होता है — यह सिद्धांत है । मेरेको गीताजीसे बहुत विचित्र बातें मिली है, बड़ा सरल दिखता है । मुझे परमात्मप्राप्ति जितनी सरलतासे, सुगमतासे प्राप्त होती है, ऐसी कोई वस्तु सरलतासे, सुगमतासे प्राप्प्त होती नहीं, हो सकती नहीं, है नहीं ऐसा साफ दिखता है ! इतना सुगम है परमात्मा; ऐसा सुननेसे मन तो करता है पर अपनी जिद छोड़ते नहीं, अब छोड़े बिना कैसे हो ??

(शेष आगेके ब्लोगमें)
दि.१९/१२/१९९४; प्रातः ५ बजे प्रार्थनाकालीन प्रवचनसे